मंगलवार, 18 अगस्त 2009

सन्यास सहिष्णुता तथा लोकसंग्रह का मार्ग है------२

सनातन धर्म किसी एक मत पर आधारित है। ’एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति”इसका उत्स है।  इसीलिये दण्डधारी परिव्राजक शंकर भी अपनी माता के उर्ध्व दैहिक संस्कारों को स्वयं संपन्न करते हैं। शारीरक भाष्यकार यह सन्यासी शरीर का निषेध नहीं करता है अपितु उसकी निःसारता का प्रतिपादन करता है। यह मनसाऽप्यचिन्त्य रचना इन्द्रियानुभविक जगत तो नैसर्गिक है इसलिये लौकिक व्यवहारो का अपलाप कथमपि संभव नहीं है।  व्यवहार के स्तरपरयह मिथ्यात्व तर्क एवं अनुभव द्वारा अवबोध्य है इन्द्रियानुभव से नहीं। भौतिक अग्नि की दाहकता अलीक नहीं है, नहि श्रुतिसहस्रेणाप्यग्निर्शीतं कर्तुं शक्यते।
        बाबा रामदेव ने शंकर के जगत मिथ्यात्व सिद्धान्त से अपनी असहमति जतायी है ब्रह्म सत्यं को स्वीकार किया है। शकर ब्रह्मवादी है मायावादी या मिथात्ववादी नहीं है।  शंकर ने भी मिथ्यात्व के सिद्धान्त को उतना महत्त्व नहीं दिया है जितना हरिद्वार से लेकर काशी तक के शांकरमतावलम्बियों ने प्रतिपादित करने की कोशिश की है। आचार्य शंकर तो त्रिविध सत्ता के सिद्धान्त के उपन्यासकार हैं।
जिस प्रकार संख्या बल के आधार पर बाबा रामदेव को दबाव में लाया गया है। वह कठोर पान्थिकता की ओर संकेतित कर रहा है।स्वयं शंकर तो धर्म के विषय में सूक्ष्म निर्णय के लिये परिषद् व्यापार की आवश्यकता प्रतिपादित करते हैं। 
विरोध प्रदर्शन तथा अखबारी बयानबाजी से किसी दर्शन की श्रेष्ठता प्रतिपादित करने का तरीका सन्तो को शोभा नहीं देता है।  सन्तो द्वारा यह कहना कि यदि इस अपराध के लिये बाबा रामदेव ने क्षमा याचना नहीं कि तो उनका सामाजिक बहिष्कार किया जायेगा सन्यास धर्म के विरूद्ध  है, सन्यासी तो लोक तथा समाज का परित्याग ही है। यह आश्रम बिना समाज के परित्याग के सुलभ ही नहीं है। वह् तो सभी कर्मॊ तथा संबन्धों से उपर उठ कर लोक संग्रह मात्र के लिये कर्म की अवस्था है। अतः यह धमकी या चेतावनी वेदपथानुरोधी कैसे हो सकती है। हाँ इससे उलट यह सनातन धर्म को सामी पन्थो के समकक्ष अवश्य खडा कर देता है।
आद्यशंकराचार्य ने भी इस लोक को नित्य तथा वस्तुगत रुप में सत् मानने वाले मीमांसकों का गहन गभीर प्रत्याख्यान किया है। लेकिन वे इस प्रत्याख्यान  हेतु भी मण्डनमिश्र से शास्त्रार्थ का भिक्षाटन करते हैं। भिक्षाटन अनुरोध है निवेदन है चुनौती नहीं है।
’वादे वादे जायते तत्त्वबोधः’ से किसी का विरोध नहीं है,होना भी नहीं चाहिये। किन्तु असहमति के स्वर संख्या बल पर नहीं दबाये जाने चाहिये। यदि पहले ऎसा हुआ होता तो बौध एवं मीमांसा मत के प्रत्याख्यानपूर्वक आचार्य शंकर का अद्वैत मत प्रतिष्ठित ही नहीं हो पाया होता।
विरोधी चिन्तन का खण्डन करने का अधिकार सबको है। पर यह सैद्धान्तिक धरातल ही बना रहे। पुनश्च वेद का प्रामाण्य मानने वाला कोई भी विचार सनातन का विरोधि नही है अपितु सनातन  वैचारिकी का ही एक भाग है। उसकी इस प्रकारसे प्रताडना आश्चर्यजनक है। 

1 टिप्पणी:

Rakesh ने कहा…

uchit hai. sanyasi ka dharm lok jeevan ke anusaar nahin chalata varan vah to lok jeevan ko prerna deta hai. vah swayam lok jeevan se aprabhavit rahta hai kintu vah lokjeevan ko satpath par aage badhne ki shakti bhi deta hai.

yogi ramdev ke sandharbh me aapka kathan uchit hai ki santon ko aalochana va pratyalochana se door hi rahna chahie.

yours
Rakesh Upadhyay