रविवार, 24 अक्तूबर 2010

भारत का मूल विचार --- हिन्दुत्त्व

[यह नोटस् नही है अपितु हिन्दुत्व को लेकर चल रहे एक बहूआयामी वैचारिक लेखन के प्रास्ताविक का अंश है , प्रस्तावना भी अपने आप में काफी बडी है अतः सम्पूर्ण तो यहां प्रस्तुत नहीं किया जा सकता तथापि उअस्के कुछ अंश को धारावाहिक रुप से प्रकाशित करना चाहता हूँ। प्रयास है कि समग्र न प्रस्तुत हो तो भी हार्द आ ही जाये। इसलिये सन्दर्भॊ के बोझ से बचने का भी प्रयास उन्हे पुस्तक में कि शीघ्र प्रकाश्य है उसे देखा जा सकेगा ]
भारत शब्द का अर्थ ही है विश्व की प्राचीनतम संस्कृति, श्रेष्ठतम जीवन प्रणाली,वितरण की समतामूलक ममतायुक्त समाजविधि, संस्कृतिनिष्ठ भक्तिपूरित राष्ट्रीयता, सर्वसमन्वयकारी सर्वसमावेशी उपासना प्रणाली। यह अभ्युदय और निःश्रेयस् का ऐसा धर्म संस्थान है जो रुढियों का विलोपन करने तथा लक्ष्य की संप्राप्ति के नये पथ को स्वीकार करने के लिये सहज प्रस्तुत है। जो जातीय सभ्यता के निषेधपूर्वक जातीय वैशिषट्य को सार्वजनीन् बनाने का अनुपम प्रस्ताव है।
विचारों के इतिहास पर एक विहंगम दृष्टि डाली जाय तो सहज एवं निःशंक रुप से यह कहा जा सकता है कि भारतीयता या हिन्दुत्त्व सत् एवं ऋत् का एक ऐसा गठबन्धन है। जिसमें सभी प्रकार की वैयक्तिक विशिष्टताओं का समग्र के लिये समर्पण एवं समग्र के वैशिष्ट्य का सभी विशेषों में आप्लावन होता है।
इस संस्कृति या विचार परंपरा की यह महनीय विशेषता है कि इसमें शेष विश्व के कथित अधुनातन मूल्यों को दूनियाँ के इतिहास में प्रथम बार अभिव्यक्त एवं प्रयुक्त किया गया है। जब आधुनिक विश्व १९८० के बाद नयी करवट ले रहा था उत्तर आधुनिकता के नये ढाँचे को स्वीकार करते हुये वैश्विक दृष्टिकोण के साथ स्थानीय सांस्कृतिक वैशिष्ट्य को संरक्षण के लिये बहुलवादी समाज रचना को वैश्विक स्वीकृति प्रदान कर् रखा था। तब भारत की समझ तथा हिन्दुत्व के उत्स की पहचान रखने वाले लोगों को अथर्ववेद का पृथ्वीसूक्त अत्यन्त स्वाभाविक रूपसे इस प्रकार की समाज रचना का सूत्र प्रस्तावित करता हुआ दिखा। यही ऐसे कारण रहे हैं कि यह विचार सैद्धान्तिक रुप में तो दूनियाँ में श्रेष्ठतम तो रहा ही है। व्यवहारिक अनुप्रयोग की दृष्टि से उत्कृष्टतम चिन्तन का प्रथम प्रयोक्ता भी है। साथ ही इस विचार प्रणाली की त्रिकालाबाधित प्रासंगिकता भी सिद्ध है।
यहाँ ज्ञान एवं कर्म, बोध एवं आचार के बीच अद्वैध की स्थिति सहज ही मान्य है। इस मान्यता ने हिन्दुत्व को एक ऐसी जीवन प्रणाली के रुप में विकसित किया जो अपरिवर्तनशील लगता है। किन्तु यह अपरिवर्तनशीलता भौतिक नहीं है। भौतिक संसार तो परिवर्तनशील ही है, परिवर्तन है तो संसार है।संसरण ही संसार है। यह संसरण नहीं तो संसार नहीं। यह संसरण या गतिशीलता संसार का धर्म है इसको स्वीकार करना तथा सभी प्रकार के परिवर्तनों को अपरिवर्त्य आधार पर अधिष्ठित मानना अर्थात् अपरिवर्तनशील मूल भित्ति पर भौतिक परिवर्तनो को स्वीकृति देते हुये आगे बढने वाली जीवन प्रणाली की स्थापना हिन्दुत्व है।
विश्वतोमुखता को ध्यान में रखते हुये हिन्दुत्व की वैचारिक अवधारणा का विश्लेषण उसे अपनी वैचारिक मर्यादा में वैश्विक कल्याण के श्रेष्ठतम चिन्तन के रुप में प्रस्तावित करता है। सर्वे भवन्तु सुखिनः मात्र भौतिक स्तर पर् सबके सुख की कामना नहीं है अपितु कायिक वाचिक एवं मानसिक स्तरों पर सबके कल्याण का विचार है। भवन्तु सर्व मंगलम् इस विचार प्रणाली का ध्येय है।
हिन्दुत्व का वैशिष्ट्य मनुष्य का सर्वांगीण विकास है।यह जीवन प्रणाली ऐसी विधि है जो भौतिकता और आध्यातिम्कका समन्वय कर समत्व के मार्ग का प्रतिपादन करती है। हिन्दुत्व अपने मूल उत्स में अनादि से अनन्त तक विस्तृत अखण्ड काल में मानव की जीवन यात्रा का वह अनुपम पथ है जिसमें व्यक्ति वर्तमान में स्थित हो कर अतीत अएवं अनागत दोनो के साथ स्वयं को सम्बद्ध करता हुआ अपनी दैशिक एवं कालिक सीमाओं को बहुतर विस्तार देता है।
दुनियाँ में प्रचलित विविध जीवन दृष्टियों में हिन्दुत्त्व की जीवन दृष्टि एक विशिष्ट जीवन दर्शन का प्रस्ताव करती है। इसके शतशः कारण हैं कि हिन्दुत्व को अलग एवं विशिष्ट समझा जा सके। किन्तु अलग या विशिष्ट होना इसका वैशिष्ट्य नहीं है। अपितु इसकी सर्वसमावेशिता तथा सात्मीकरण की अनुपम प्रणाली ही इसे अन्यों से अलग एवं महत्वपूर्ण बनाती है।