सोमवार, 25 जनवरी 2010

वेदान्त और युवा

डा. रजनीश कुमार शुक्ल

वेदान्त चराचर जगत को एक विशिष्ट विधि से देखने की प्रणाली है। इस विश्व में चर, अचर, स्थावर जंगम जो कुछ भी है उन सब को चैतसिक प्रकाश की अभिव्यक्ति के रुप में देखना यही वेदान्त के सभी सम्प्रदायों में भाषा भेद तथा प्रतिपादन विधि के भेद के होते हुये भी मुख्य प्रतिपाद्य विषय के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। १९वीं शताब्दी के अन्त में विश्व मानचित्र पर वेदान्त को भारत के धर्म के रुप में प्रतिस्थापित किया। इस रुप उन्होने वेदान्त को उपासनामूलक धर्म से अलग हट कर एक ऐसे नीतिमूलक धर्म आचार धर्म या जीवन दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया जिसमें आनुष्ठानिकता के स्थान पर बोध तथा बोध जनित व्यवहार पर बल दिया गया।

वेदान्तीय चिन्तन के इतिहास पर विहंगम दृष्टि डालने पर यह नवीन युग का सूत्रपात था आदि शंकर के बाद स्वामी विवेकानन्द वे दूसरे काषाय वेशधारी सन्यासी हैं जिन्होने वेदान्त को जीवन के चतुर्थ चरण में स्वाध्याय का विषय मान कर सभी जीवनावस्थाओं में तथा वैयक्तिक जीवन से लेकर समस्त समाज के जीवनान्तरण (Transformation) की प्रणाली के रूप में सशक्त तथा युक्तियुक्त प्रतिपादन किया है। वेदान्त जो लम्बे समय से गिरि कन्दरा तथा गहन गुफाओं मे बन्द हो कर कुछ विशिष्ट साधकों की साधना की सामग्री हो कर रह गया था उसे वहाँ से बाहर लाकर सर्व समाज की वस्तु बनाने का उन्होने अद्भुत पराक्रम किया। गीता के स्वाध्याय से लेकर फुटबाल के खेल तक सर्वत्र वेदान्त बोध के अवकाश की प्रतिस्थापना एवं एक प्रकार की चिन्मयता के अवाप्ति का उपदेश करते हुये स्वामी विवेकानन्द ने इसे मात्र मोक्षकामियों के लिये उपयोगी दर्शन के रुप में सीमित करते हुए जीवन के हर क्षेत्र में कुशलता निर्माण की प्रणाली के रूप में प्रस्तुत किया। इसको स्वामी जी ने एक अभियान के तौर पर चलाया और कालान्तर में अनेक विचारकों ने अकादमिक तथा गैर अकादमिक सभी तरीक़ों से व्यवहारिक जीवन प्रणाली अथवा विज्ञान के युग के धर्म के रूप में प्रतिष्ठित करने के बहुविध प्रयत्न किये।

इस महनीय प्रयास में योगदान करने वाले विचारकों दार्शनिकों तथा सन्यासियों की एक लम्बी श्रृंखला देखी जा सकती है। किन्तु बीसवीं शताब्दी में जिस व्यक्ति ने वेदान्त को विश्व धर्म के रूप में प्रस्तुत करके अध्यात्म तथा विज्ञान के बीच के कथित अन्तर को समाप्त करने की दिशा में सर्वाधिक योगदान दिया है उस महान व्यक्ति का नाम स्वामी चिन्मयानन्द है। स्वामी जी ने वेदान्त को युवाओं के युग ध्रर्म के रूप में प्रस्तुत किया, किसी भी समकालीन विचारक के प्रयासों की आलोचना किये बिना, पूर्ववर्ती वेदान्त विचारकों के योगदान को स्वीकार करते हुये, भगवद् गीता के अध्ययन से वेदान्त को विश्व-धर्म बनाने की संभावना को प्रस्तुत करते हुये उसे बहुतर विस्तीर्ण करने का जो अभिनव कार्य स्वामी चिन्मयानन्द ने किया है वह अविस्मरणीय एवं सर्वविध अनुकरणीय़ है।

वेदान्त जीवन के उत्तरार्ध का धर्म नहीं है अपितु यह जीवन की प्रत्येक अवस्था के जीवन संघर्ष में सकारात्मक परिणाम लाने की अनुष्ठान विधि है, इस भाव भूमि को स्वामी विवेकानन्द ने विश्व पटल पर पहली बार प्रतिस्थापित किया तो स्वामी चिन्मयानन्द और चिन्मय मिशन ने इस अवधारणा को बहुशः विस्तारित, पोषित और पल्लवित किया है। आज किसी को भी वेदान्तीय जीवन प्रणाली का परिचय कराने की आवश्यकता नहीं है। समस्त विश्व में इसकी सहज स्वीकृति बनी है। इस सहज स्वीकृति के पीछे जिन महान व्यक्तियों का योगदान है उनमें स्वामी चिन्मयानन्द अनन्यतम हैं, अनितर असाधारण तथा लोकोत्तर हैं।

वेदान्त युवाओं में किस रूप में उपयोगी हो सकता है इसकी समीक्षा के लिये स्वामी जी के चिन्तन का ही उपयोग किया है अथवा यह भी कहा जा सकता है कि मैं ने उसी रूप में वेदान्त को युवजन के लिये लाभकारी होना स्वीकार किया है। वेदान्त की बहूपयोगिता को स्वामी जी ने दिसम्बर १९९२ में संयुक्त राष्ट्र संघ को सम्बोधित करते हुये युक्ति-युक्त रूप से सिद्ध किया है। इस व्याख्यान के द्वारा स्वामी जी ने बिना स्व के गौरव गान के ही अत्यन्त सुष्ठु रीति से यह प्रतिपादित किया है कि आज की समस्याओं के समाधान का एक मात्र रास्ता भारत की वेदान्त दृष्टि ही है।

आज सम्पूर्ण पृथ्वी गहरे संकट में है, समूचे ग्रह का अस्तित्त्व ही संकटापन्न है। राष्ट्रों के बीच युद्ध, सभ्यताओं के संघर्ष ने समस्त मानव जाति को अस्तित्त्वपरक गहन संकट में डाल दिया है। अन्ध-धार्मिकता के प्रति विद्रोह के फलस्वरूप विकसित आधुनिक सभ्यता ने क्षिति, जल पावक गगन समीर इन पांचों ही तत्त्वो को दूषित कर दिया है। परिणामतः यह कह पाना कठिन है कि यह धरती कब तक बनी बची रहेगी। मनुष्य ने प्रकृति पर विजय पाने की अपनी अदम्य लालसा के चलते प्रकृति के मूल स्वरूप में जिस प्रकार की छेड़-छाड़ की है जैसा भयावह हस्तक्षेप किया है उसका फल यह है कि प्राकृतिक साम्य समाप्त हो गया है । धरती विक्षुब्ध हो गयी है आज यह कहना बेमानी हो गया है किमाताभूमिः पुत्रोsहम पृथव्याः। यह संकट जीवन प्रणाली के द्वारा उत्पन्न हुआ संकट है। आधुनिक जीवन प्रणाली मनुष्य तथा अन्य जीवधारी एवं जड़ प्रकृति को विविक्त रुप में देखने की प्रणाली है। यह कथित आधुनिक प्रणाली पश्चिम में सांस्थानिक धर्म के विरोध में विकसित हुई थी। यद्यपि कि शक्तिशाली धर्माम्नाय के विरूद्ध हुये इस विद्रोह को पश्चिम ने कभी भी सामी मूल के खिलाफ विद्रोह न कहते हुए इसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण के परिणाम स्वरूप उपजी हुई जीवन प्रणाली कहा है। अब यह अलग विचार का विषय है कि यह कथित पश्चिमी आधुनिक जीवन प्रणाली कितनी वैज्ञानिक है?

वैज्ञानिक दृष्टिकोण (Scientific Temper) ऐसा शब्द है जिसकी बहुविध परिभाषा हो सकती है किन्तु एक तो परिभाषा सब को स्वीकार करनी होगी वह यह कि जो चिन्तन प्रणाली न्यूनतम प्राक्कल्पना के आधार पर युक्ति-युक्त रूप से प्रतिपादित हो सके, स्थूल से सूक्ष्म की ओर अन्तरण का सरलतम तरीक़ा हो वही अपेक्षया अधिक वैज्ञानिक विधि हैं। जब विश्व की कोई व्याख्या सहज एवं सरलतर होती है तो कालजयी वैज्ञानिक सिद्धान्त के रूप में उसे स्वाभाविक प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। आज हम जिस दौर से गुज़र रहे हैं उसमें सूक्ष्म किन्तु जटिल की अवधारणा को विज्ञान के विकास के निदर्श के रुप में स्वीकार कर लिया गया है। वस्तुतः वाह्यार्थवादी विज्ञानों का यह यह स्वाभाविक परिणाम भी है। वर्तमान सभ्यता इस प्रकार के वस्तुवादी विज्ञान( Object-centric Science) का ही परिणाम है| इस वस्तुपरक विज्ञान में दो प्रकार के तर्कशास्त्र प्रयुक्त होते है एक वह जो मध्य पद के परिहार के नियम ( Low of excluded middle) पर चलता है दूसरा जो सादृश्य के संग्रह पर आधारित है। भेद और समता के तर्कशास्त्र पर आधारित इस विज्ञान ने न केवल मनुष्य के लिये सुविधामय जीवन के उपकरण जुटाये हैं अपितु एक प्रकार कि संस्कृति का भी निर्माण किया है यह संस्कृति वाह्य जगत के संश्लेषण तथा विश्लेषण पर आधारित है। यह सब कुछ वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित संस्कृति के निर्माण से मनुष्य के जीवन को आनन्दमय बनाने के नाम पर हुआ है। क्या इस समस्त प्रयास का परिणाम मनुष्य का आनन्द है? इस प्रश्न का उत्तर कठिन है सच तो यह है कि आज विश्व का कोई ऐसा कोना नहीं है जहां संत्रास न हो व्यक्ति इस काल खण्ड में संत्रस्त होने के लिये अभिशप्त है।

इस मानवीय अभिशप्तता का विस्तार विकास के नाम पर हुआ है। विकास का यह सभ्यता केन्द्रित ढांचा मनुष्य के आन्तरिक विकास को कर पाने में अक्षम है क्योंकि इस वैज्ञानिक सभ्यता की निर्मिति ही जिस विज्ञान पर हुई है वह वाह्यार्थ पर केन्द्रित है। अथवा यह कहा जाय कि जो अर्थ वाह्य जगत में प्राप्त नहीं हैं उन सबकी निरर्थकता का डिंडिम घोष यह संस्कृति है। इस सभ्यतामूलक सांस्कृतिक अवधारणा से परिवृत जगत में ही हमें जीवन जीना है यह हमारी अस्तित्त्वात्मक बाध्यता है। इस अस्तित्त्वात्मक बाध्यता के बीच जीवन को सर्वाड्गीण बनाने की विद्या का नाम वेदान्त है। स्वामी विवेकानन्द तथा स्वामी चिन्मयानन्द ने वेदान्त को सभी प्रकार की सभ्यताओं में मूल्याधिष्टित सांस्कृतिक जीवन की विधि के रूप में ही प्रस्तुत किया है।

अब यह प्रश्न विचारणीय है कि आज के युवा के लिये वेदान्त की उपयोगिता क्या है? अर्थात मोक्ष शास्त्र नामक इस विद्या प्रस्थान का आज के युवा के लिये क्या महत्त्व है? अथवा यह कि निवृत्तिमूलक शास्त्र की प्रवृत्ति प्रधान जीवन काल में कोई उपादेयता है अथवा नहीं? इस दिशा में द्वितीय विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या वेदान्त विद्या के विकास में युवाओं की कोई भूमिका है? क्या युवा मन युवा शरीर वेदान्त नामक निवृत्ति नय का पथिक या पथ निर्माता हो सकता है? इन महत्त्वपूर्ण प्रश्नों के अतिरिक्त यह भी अत्यन्त महत्त्व का प्रश्न है कि क्या सूचना एवं तकनीक के इस युग के युवाओं की दुनियांवी समस्याओं के समाधान की दिशा में वेदान्त विद्या स्थान की कोई उपयोगिता है अथवा नहीं ?

स्वाभाविक तौर पर मैं सबसे पहले युवा के लिये वेदान्त की आवश्यकता पर विचार करना चाहता हूं। यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि इस प्रश्न के उत्तर की तलाश में मैं किसी काल खण्ड विशेष के युवा की चर्चा किये बिना जीवन के यौवन काल में वेदान्त की अपरिहार्यता पर अपने विवेचन को केन्द्रित रखना चाहूंगा। इस रुप में युवावस्था को विवेचित करने पर सहज ही ध्यान में आता है कि यह अवस्था जीवन का ऐसा काल खण्ड है जो विशिष्ट प्रकार की मानसिकता का निर्माण करता है। जिस के प्रमुख लक्षण है- जो कुछ स्थापित व्यवस्था है उससे विद्रोह, जीवन या जगत में जो कुछ जड़ गतिहीन या ठहरा हुआ दिखता है। उसे तोड कर आगे बढ़ना, विपरीत स्थिति को अपने अनुसार अनुकूलित करने की अदम्य प्रवृत्ति का नाम युवावस्था है। इस उद्दाम शक्ति को सगुण रुप से क्रियाशील रखने की विधि युवावस्था में वेदान्त की उपयोगिता को सिद्ध ही नहीं करता है उसे अत्यन्त आवश्यक तथा अपरिहार्य भी बना देता है। भगवद् गीता इसको अत्यन्त सशक्त तथा युक्तियुक्त दंग से प्रस्तावित करती है। कर्त्ता होना मनुष्य की जन्मजात स्थिति है बिना कर्म किये कोई एक क्षण भी स्थित नही रह सकता है। यौवन कर्म की शिखरावस्था है इस लिये इस अवस्था में कर्म-विकर्म सभी का निश्चित रुप से सम्पादन होता है। किन्तु कर्म करते हुये नैष्कर्म्य की सिद्धि मनुष्य के कर्म जनित दु:ख को कम करते हुये उसके सक्रिय जीवन के आनन्द को बढ़ाता है। प्रत्येक व्यक्ति कुछ भी इसलिए करता है कि उसे वह करने में आनन्द आता है। इस आनन्द को निरतिशय करने की प्रणाली ही वेदान्त है।

कर्म फ़ल उत्पन्न करते है, फ़ल का क्षय भोग से होता है इस लिये भोग कर्म फ़ल के बन्धन में बाँधता है अतः यह जिज्ञासा तो स्वाभाविक है कि कर्म या प्रवृत्ति के पथ पर आनन्द कैसे प्राप्त हो सकता है? इस प्रश्न का उत्तर भगवद्गीता है। मैं बार-बार भगवद्गीता की चर्चा कर रहा हूँ तो इस लिए कि वेदान्त किसी विशिष्ट चिन्तन सरणि का नाम नही है अपितु वेदान्त उपनिषदç विद्या को ही कह्ते है(वेदान्तो नाम उपनिषद प्रमाण:)। सभी कोशकार वेदान्त शब्द का अर्थ उपनिषदç या रहस्य करते है। भगवद्गीता के सम्बन्ध में तो विश्व्ख्याति है_

सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दन:

पार्थो वत्स: सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महतç

भगवद्èगीता मात्र इस लिये महत्त्वपूर्ण नहीं है कि यह ईश्वरीय वाणी है अपितु इसलिये श्रेष्ठ है कि इस में ईश्वर की प्राप्ति का सभी संभव उपाय प्रतिपादित है\ लेकिन ईश्वरीय वाणी होने मात्र से ही गीता सब के लिये उपादेय नही है यह उपादेय है तो इसलिये कि इसमें प्रति प्रश्न हैं। गीताकार तो ईश्वर प्राप्ति के सहज साधन के रुप में परिप्रश्न को साधन के रूप में स्वीकार करते हैं। प्रश्न करने कि इतनी छूट अपने आप में इस विद्या स्थान को विश्व धर्म बनाने के लिये पर्याप्त है।

वस्तुतः वेदान्त परलोक के चिन्तन पर आधारित जीवन प्रणाली नहीं है अपितु यह इस विश्व के संबन्ध मे किया गया चिन्तन है। गीता के प्रश्न जो समूचे वेदान्त का हार्द प्रस्तुत करता है जीवन के दैनिक समस्याओं से जुडे प्रश्न हैं। नचिकेता जब अपने पिता से चिल्लाकर पूछता है कि आप को बताना होगा कि आप मुझे किस को दे रहे हैं तो यह प्रश्न पारलौकिक नहीं है इस विश्व की नैतिक व्यवस्था से जुड़ा हुआ नितान्त लौकिक प्रश्न है, जब नारद सनक सनन्दन सनत्कुमार से यह कहते है कि मै मन्त्रविदç हूँ आत्मविदç नहीं तो यह प्रश्न शान्ति की तलाश में व्याकुल एक विद्वान के स्वाभाविक प्रश्न हैं, किसी पारलौकिक सत्ता के लिये आकुल व्याकुल रहस्यवादी के प्रश्न नहीं हैं। अतः यह तो स्पष्ट ही है कि वेदान्त का उद्भव और विकास नितान्त लौकिक किन्तु आध्यात्मिक प्रश्नों के समाधान के लिये हुआ है। यह जगतç से पलायन का दर्शन न हो कर जगतç के मूल रुप को समझते हुये उचित व्यवहार का जीवन-विद्या पथ है।

इस को भगवद्गीता के विषाद योग नामक प्रथम अध्याय से समझा जा सकता है। इस अध्याय में अर्जुन की स्थिति किसी भी समकालीन युवा के स्मान ही है। उसके प्रश्न प्राचीन मूल्य व्यवस्था तथा नवीन वैश्विक परिस्थिति के साथ जूझ रहे किसी भी युवा के स्वाभाविक प्रश्न हैं। गीता प्राचीन व्यवस्था तथा नवीन चुनौतियों का समुचित उत्तर है। प्राचीन मूल्यों के प्रति आस्क्त अर्जुन प्राचीन मूल्यों परंपराओं एवं कुल धर्म की रक्षा के लिये युद्ध के नियत कर्म से भाग जाना चाहता है उसने अपने लिये नियत कर्म के फलों की निःसारता प्रतिपादित करते हुए कहा कि ---

नकाड्.क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।

किं नो राज्येन् गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन् वा॥

प्रथम दृष्टया यह त्याग लगता है लेकिन यह वैराग्य जनित त्याग न हो कर गहरे शोक के क्षणों में उत्पन्न होने वाली त्यागवृत्ति है। अर्जुन विजय, राज्य, सुख सब कुछ अपने संबन्धियों के लिये चाहता है । पर जब उसे यह दिखायी देता है कि सभी अपने प्राण का मोह त्याग कर युद्ध भूमि में आ गये हैं और ऐसी स्थिति में विजय तो इन को मार कर ही होनी है फिर कौन होगा विजयोपरान्त प्राप्त राज्य का भोक्ता ?

इस प्रश्न के साथ ही अर्जुन के समक्ष एक और विकट प्रश्न है वह है सामाजिक रूढि तथा परंपरागत नैतिकता के उल्लंघन का । वह एक ऐसा व्यक्ति है जो समाज और परंपरा के आधार पर चलना चाहता है। अपने वैयक्तिक सत्यानुभुतियों को आधार बना कर नहीं। कृष्ण का उपदेश कथित नैतिकता के वाह्य बंधनों को अस्वीकार कर आन्तरिक अनुभव एवं शक्ति के विकास का मार्ग है। जीवन का यथार्थ दो संसारों के सीमान्त पर विद्यमान है। युवावस्था में यह संघर्ष और अधिक कठिन हो जाता है। क्योंकि इस आयुखण्ड में व्यक्ति कुछ करने का प्रयास तो करता है पर वह एक अव्याख्येय निर्णय विहीनता की स्थिति में फंसने लगता है। इस काल खण्ड में न तो अपने आप को जानता है न तो अपने साथियों को ही जानता है और न ही वह विश्व की वास्तविक स्थिति तथा प्रकृति को ही जान पाता है। विश्व के दुरçदम्य संघर्ष में उसे जिस रूप में खड़ा होना पड़ता है उस प्रकार की स्थिति में पलायन करने का मानस बना स्वाभाविक तथा अवश्यंभावी है। अर्जुन इन्ही कारणों से युद्ध भूमि को छोड़ना चाहता है। अर्जुन की स्थिति हर युवा की है, युवा सामान्यतः जीवन के युद्ध से घबराता नहीं है लेकिन विजय के लौकिक रास्ते को वह उचित नहीं मानता है । लौकिक रास्ता अर्थात् सत्य और अनृत् के युग्म से निर्मिति नैसर्गिक रास्ता । परिणामतः कार्पण्यता से घिर जाता है। वेदान्त इस स्थिति में स्वाभिमान पूर्वक कर्म के लिये प्रचोदित करने का नय है। कर्त्तव्य पथ पर अनुकुल परिणाम की कामना के बिना कर्म संपादन को ही जीवन लक्ष्य मान कर कार्य में प्रवृत्त होने की प्रेरणा इसी नय वीथि से प्राप्त होती है। इतना ही नहीं यह जीवन में अनायास प्राप्त होने वाले प्रत्येक संत्रास का समुचित प्रत्युत्तर है। यह विषय वासना से मन को हटा कर सर्वॊच्च शुभ तक अनथक अनवरत चलते रहने की प्रेरणा है।

इस वेदान्त वीथि पर युवा ही चल सकता है इसी कारण से यह हर युग के युवा का ध्रर्म है। उपनिषदों के नायक नचिकेता, उद्दालक, श्वेतकेतु, सत्यकाम था आरूणि आदि सबके सब युवा हैं युवा मन ही सपने सजाता है सपनो को सच करने साकार करने और अन्तिम परिणाम तक पहुँचाने की युयुत्सा रखता है कर्तृत्त्वाभिमान से विरत रहते हुए नियत कर्मों को निश्चित परिणाम तक पहुँचाने का सामर्थ्य मात्र युवा में ही है। वेदान्त विद्या तो युवा जनों की ही विद्या है। नचिकेता से आरूणि तक सभी मन्त्र द्रष्टा ऋषि युवा हैं, शंकराचार्य से विवेकानन्द तक सभी आचार्य युवा हैं। इस प्रकार के युवजन सम्मत दर्शन प्रस्थान , युवकोचित धर्म दृष्टि को युवाओं के लिये उपादेय प्रतिपादित करने का प्रयास पिष्ट पेषण मात्र है।

वेदान्त युग का धर्म है और इस युग का धर्म आनुष्ठानिक नहीं हो सकता है क्योंकि यह काल खण्ड् स्वतन्त्रता के घोष का काल खण्ड है\ समस्त बन्धनों से मुक्ति का काल खण्ड है। ऐसे काल में सांस्थानिक धर्म व्यवस्था अपने को उपादेय सिद्ध नहीं कर सकती है। जब भी वह समकालीन विश्व पटल पर अपने को स्थापित करने का प्रयास करेगी उसका जड आतंकी रुप ही सामने आयेगा क्योंकि अनुष्ठान केन्द्रित सांस्थानिक धर्म में गतिशीलता तो संभव ही नहीं है। फलतः इसमॆं व्यक्ति की निजता की रक्षा संभव नहीं है। वैयक्तिक स्वतन्त्रता की रक्षा संभव नहीं है। अतः इस् युग को एक वैचारिक धर्म की आवश्यकता है। चेतना केआरोहण की प्रणाली की आवश्यकता है। वेदान्त ही वह सोपान है जो चेतना का आरोहण करा सकता है।

वेदान्त ही इस भौतिक त्रिआयामी विश्व में चतुर्थ आयाम की संकल्पना को साकार कर सकता है। त्रिआयामी विश्व मॆं धर्म, अर्थ काम का कार्य कारण संबन्ध जनित बन्धन है। मुक्ति वह चतुर्थ आयाम है जो इनकी कार्य कारण श्रृंखला को तोडता है। कार्य कारण कर्म फल की अनादि श्रृंखला को स्थगित कर देना और कालान्तर में उसे तिरोहित कर देना ही चतुर्थ आयाम की संप्राप्ति है। यह वह स्थिति है जिसमें उपनिषदç का मन्त्र सार्थक हो उठता है कि---

तदेजति तदन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके।

तदन्तस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य वाह्यतः॥