सर्वोच्च तथा उच्च न्यायालय में क्यों नहीं है हिन्दी ?
दिसम्बर २००८ में विधि आयोग को यह अध्ययन का कार्य दिया गया था कि सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय में हिन्दी में काम काज की संभावना पर अपनी संस्तुति दे, किन्तु जैसा की पहले से माना ही जा रहा था विधि आयोग ने नकारात्मक रिपोर्ट दी और सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय में हिन्दी सहित भारतीय भाषाओं के प्रवेश पर एक बार फिर प्रतिबन्ध लग गया। २७ जुलाई २००९ को संसद में विधि आयोग के २१६ वें प्रतिवेदन के सम्बन्ध में जानकारी देते हुए विधि एवं न्याय मन्त्री श्री वीरप्पा मोईली ने कहा कि आयोग ने हिन्दी को सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के काम-काज के लिये अव्यावहारिक बताया है। इस के पीछे राजनीति तो है ही भारतीय न्याय व्यवस्था का अभारतीय स्वरूप भी इसका महत्त्वपूर्ण कारण है।
शिक्षा के भारतीयकरण के अभियान को छुद्र राजनीतिक विरोधों के बाद भी एक सीमा तक सफलता भी प्राप्त हुई है कम से कम इतना तो हुआ ही है कि मैकाले को खारिज करने के लिये गम्भीर बहस खड़ी हुई है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय में भारतीय भाषाओं के प्रतिबंध को लेकर कहीं कोई बहस नहीं हो रही है। भारत की स्वतन्त्रता के ६३ बरस तथा हिन्दी को राजभाषा राष्ट्र भाषा के रुप में स्वीकृति के ६० वर्ष पूर्ण होने के बाद भी देश की न्याय व्यवस्था नागरिकों को स्व भाषा में न्याय नहीं उपलब्ध करा सकती है। लेकिन यह ध्यान रहे कि न्याय व्यवस्था का प्रश्न मात्र भाषा का नहीं है स्वयं न्याय की अवधारणा तथा विधि का विवेचन और उसके न्यायानुकूल होने का प्रश्न भी महत्त्वपूर्ण है।
न्याय व्यवस्था का आधार विधिशास्त्र है। विधि का लेखन जिस भाषा में होता है वह साधारण भाषा है प्रत्येक साधारण भाषा स्वाभाविक रुप से अपने परिवेश के आधार पर ही अर्थ संस्थान का निर्माण करती है। अनुदित विधि हमेशा अर्थ बोध के लिये मूल भाषा की मुखापेक्षी होती है। यहां यह भी ध्यातव्य है कि सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय का मुख्य कार्य विधि को संविधान तथा प्राकृतिक न्याय के आलोक में व्याख्यायित करने का है साथ ही अवर न्यायालयों के निर्णय का न्यायिक पुनरीक्षण भी करना होता है। ये दोनों कार्य भाषाई विश्लेषण पर आधारित निर्वचन प्रणाली की अपेक्षा करते हैं। यह कार्य किसी भी विधिक पाठ अथवा संविधि की व्याख्या से जुड़ा हुआ कार्य है अतः इसमें किसी भी विधि पाठ का अर्थ बोध या वाक्यार्थ बोध सुनिश्चित करना अपेक्षित होता है। यह एक प्रकार की विशिष्ट प्रणाली की अपेक्षा करता है। अभी तक भारत में विधि के निर्वचन हेतु जिस सिद्धान्त का बहुशः प्रयोग होता है वह मैक्सवेल का On Interpretation of Statutes नामक ग्रन्थ है यह किताब लम्बें काल से ब्रिटिश विधि के क्षेत्र में व्याख्या की बाईबिल समझी जाती है। व्याख्या की वैकल्पिक विधि के अभाव का बोध मात्र वह कारण है जो कि सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय में हिन्दी में काम काज की संभावना पर पानी फ़ेर देता है। यह किताब अँग्रेज़ी भाषा की भाषाशास्त्रीय संरचना के अन्तर्गत विधिक तथ्यों को वस्तुनिष्ठतापूर्वक निर्धारण की पद्धति को प्रस्तुत करती है। यह ध्यान रहे कि यह किताब स्वयं में कोई विधि नहीं है अपितु विधिशास्त्र की एक ऐसी किताब है जो परंपरा द्वारा विधि की प्रमाणिक व्याख्या प्रणाली के रूप में स्वीकृत हो गयी है।
कोई संविधान , संविधि, अधिनियम अथवा विधि भाषा में ही प्रलेखित होते हैं। किन्तु सामान्य भाषा का स्वरूप ऐसा है कि इसमें निर्वचनभेदपूर्वक अर्थ भेद की संभावना तो रहती ही है। ऎसे में निर्वचन की एक ऐसी प्रणाली की आवश्यकता होती है जो विधिवाक्य (नियम) की भाषा के अभिप्रेत अर्थ को वस्तुनिष्ठ रुप से प्रस्तुत कर सके तथा विविध सन्दर्भों में अर्थ बोध करा सके। यह सच है कि हिन्दी भाषा में इस तरह की प्रणाली का विकास नहीं हुआ है। अतः सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के हिन्दी में काम काज में कठिनाई स्वाभाविक है।
यदि हिन्दी को तथा हिन्दी के साथ ही साथ अन्य भारतीय भाषाओं को यदि वास्तविक रूप से न्यायिक काम काज की भाषा बनाना है तो संविधि की व्याख्या का सिद्धान्त तैयार करना होगा। यह कार्य अनुवाद से संभव नहीं है। क्योंकि सांविधिक व्याख्या या निर्वचन, निर्वाच्य से जुड़े सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक सन्दर्भों पर आधारित तो होती ही है संविधि की भाषा के भाषाशास्त्रीय नियमों पर भी आश्रित होती है। इसलिये हिन्दी में संविधि की व्याख्या के लिये एक मौलिक व्याख्याशास्त्र की आवश्यकता है।
मैक्सवेल की निर्वचन प्रणाली ब्रिटिश विधि व्यवस्था तथा उसके परंपरागत विधिशास्त्र पर आधारित है। भारतीय सन्दर्भ उसमें नहीं है। यही कारण है कि जटिल विषयों पर प्रस्तुत निर्णय समस्त शास्त्रीय शुद्धता के बाद भी आम जन को चौंकाने वाला हो जाता है। हिन्दी के साथ साथ अन्य भारतीय भाषाओं के प्रयोग को संभव बनाने तथा निर्वचन को भारतीय समाज के अनुकूल बनाने का एक मात्र तरीका है कि मैक्सवेल को अपदस्थ किया जाये एवं भारतीय प्रणाली, संस्कृति को प्रकट करने वाली व्याख्या विधि को स्थापित किया जाये।
स्वाभाविक तौर पर इसके लिये भारतीय इतिहास की ओर झाँकना होगा। १८५७ से भारतीय विधि के इतिहास विकास को समझने के स्थान पर विधिशास्त्र के सम्पूर्ण भारतीय इतिहास को समझना होगा जो १८५७ से सहस्राब्दियों पूर्व से प्रारम्भ होता है। ऐसी स्थिति में हमारा ध्यान स्वाभाविक रूप से मीमांसा की निर्वचन विधि की ओर जायेगा जो विधि सहित विविध शास्त्रों की व्याख्या प्रणाली के रूप में सहस्रों वर्षों से भारत में स्वीकृत रही है साथ ही इसमें अनुभवाश्रित एक ऐसी विशिष्ट गतिशीलता है जो इसे मैक्सवेल की अपेक्षा अधिक उपयोगी और वस्तुनिष्ठ बनाती है
यह बात मैं मात्र इस आधार पर नहीं कह रहा हूँ कि भारत में पुरातन काल से ही इसका प्रयोग होता रहा है। इस लिये कह रहा हूँ कि २०वीं और २१वीं शताब्दी में भी इस दिशा में अनेक कार्य हुए हैं। यदि ये कार्य हिन्दी सहित अन्य भारतीय भाषाओं में हुए होते तो इसके आधार पर व्याख्या की एक ऐसी प्रणाली का विकास किया जा सकता था जो कि मैक्सवेल को खारिज कर सकता था। किन्तु इस दिशा में कार्य करने वाले सभी विद्वानों ने भाषा के महत्त्व की ओर ध्यान नहीं दिया। किन्तु इनके अध्ययन से एक बात तो प्रमाणित तो हुई ही है कि यह प्रणाली व्याख्या की वह अनुभवाश्रित पद्धति है जो मैक्सवेल की अपेक्षा अधिक वस्तुनिष्ठ विवेचन में सक्षम है।
इसी शक्ति के बल पर मैक्सवेल को अपदस्थ किया जा सकता है। मैकाले को नकार कर भारतोचित शिक्षा की आवश्यकता पर बहस शुरू है । इसके साथ ही न्याय की पश्चिमी प्रणाली को नकारने के लिये मैक्सवेल को भी खारिज करना होगा। हिन्द स्वराज्य के शताब्दी वर्ष तथा हिन्दी के राजभाषा बनने के साठवें वर्ष इस कार्य का संकल्प हर ऐसे अध्येता को लेना चाहिये जो हिन्दी में लिख सकता है विश्लेषण कर सकता है।