शनिवार, 9 मार्च 2013

स्वामी विवेकानन्द: काशी से प्रेरणा का नाता


बंधु अंतिम अवसान की साधना भूमि इस अद्भुत नगरी का विलक्षण आकर्षण क्या आपको स्तब्ध और विचार मुग्ध नहीं बना देता ? मृत्यु द्वार से मुक्ति धाम को प्रस्थान करता हुआ तीर्थ यात्रियों का सनातन अनन्त प्रवाह क्या आपको एक रहस्यपूर्ण श्रद्धा से अभिभूत नहीं कर देता" ? ये उद्गार वाराणसी के प्रति स्वामी विवेकानन्द ने रामकृष्ण सेवाश्रम बनारस के लिए वर्ष 1902 में लिखे एक अपील में व्यक्त किये हैं।
काशी वह नगर है, जहां से स्वामी विवेकानन्द की अनेक क्रांतिकारी प्रेरणायें जुड़ी हुई है। यह वह नगर है, जहां आदि शंकर की तरह युवा संयासी, रामकृष्ण पथानुयायी नरेन्द्र या विविदिषानन्द को भय से लड़ने के वेदान्तसम्मत बोध की प्राप्ति हुई। यह वही स्थान है, जहां से संस्कृत भाषा एवं भारतीय शास्त्रों के अध्ययन से ही भारत की आत्मा को जाना जा सकता है, की प्रेरणा प्राप्त हुई। यह काशी ही है, जहां पर विवेकानन्द को यह स्पष्ट अनुभव प्राप्त हुआ कि अब उनकी महासमाधि का समय आ गया है। इस नगर में ही विवेकानन्द को हिन्दू धर्म एवं बौद्ध धर्म की रहस्यात्मक एकता का ज्ञान हुआ था। यह वही नगर है, जिसमें रामकृष्ण के नाम पर कलकत्ता से भी पहले मठ या केन्द्र बनाने का विचार स्वामी जी के मन में आया था और अपने गुरु भाइयों को इसके लिए उन्होंने लंदन से प्रेरित किया था। अद्भुत और अटूट श्रद्धा थी। स्वामीजी को काशी के प्रति यह श्रद्धा अनेक स्थानों पर उनके लेखन में, व्याख्यान या संवाद में प्रकट हुई।
पाशविकता के भय से पलायन करने की बजाय उसका सामना करना और विजय प्राप्त करना स्वामीजी का वैशिष्ट्य है। वे कहते हैं कि वेदांत पाप को नहीं मानता, अपितु अविद्या, भूल को मानता है। मनुष्य की सबसे गहन अविद्या यह है कि वह मानता है कि वह कमजोर है"। इसका बोध स्वामीजी को वाराणसी में ही हुआ। संकट मोचन और दुर्गा मन्दिर के बीच बंदरों द्वारा दौड़ाये जाने पर भय से भाग रहे विवेकानन्द को एक वृद्ध संयासी ने ललकारा और कहा कि इनसे डरो नहीं, भागो नहीं, सामना करो। भय से भाग रहे युवा संयासी को प्रेरणा दी। युवक! भागो नहीं, बंदरों की ओर मुंह कर खड़े हो जाओ। साहस से सामना करो। विवेकानन्द पलट पड़े। जिन बंदरों के भय से भयभीत हो वे भाग रहे थे, वे बंदर स्वयं पलायित हो गये। युवा विवेकानन्द के मन में यह बात उतर गयी कि चाहे कितनी भी विपरीत परिस्थिति हो, भयभीत करने वाला वातावरण हो, उससे भागो नहीं। उसकी ओर मुंह करके खड़े हो जाओ। साहस के साथ सामना करो। विजय प्राप्त करो। विपरीत को पराजित करो या अनुकूल बना लो।
वर्ष 1889-90 में ही कभी काशी में विवेकानन्द श्री प्रमददास मित्र से मिले। प्रमददास मित्र तत्कालीन राजकीय संस्कृत कालेज में संस्कृत विद्या के अत्यन्त प्रतिष्ठित विद्वान थे। प्रमददास जी के घर हुई, इस भेंट में स्वामी जी ने संस्कृत अध्ययन के प्रति अपनी रुचि को प्रमद बाबू के समक्ष प्रकट किया था। इस प्रकटीकरण में दोनों के बीच अत्यन्त कारुणिक वार्ता हुई थी, वृद्ध विद्वान और युवा संयासी दोनों साथ-साथ रोये थे। दोनों ने अश्रुयात के बीच यह संकल्प लिया कि भारत की सुप्त आत्मिक शक्ति के जागरण के लिए संस्कृत अध्ययन-अध्यापन के पुनर्जागरण का प्रयास करेंगे। प्रमद बाबू ने युवा संयासी से वचन लिया कि  ‘‘वे स्वयं संस्कृत पढ़ेंगे और अपने मित्रों को भी संस्कृत पढ़ने के लिए प्रेरित करेंगे साथ ही जन सामान्य में भी उसका प्रचार करेंगे"। युवा विवेकानन्द ने प्रत्युत्तर किया कि वह स्वयं संस्कृत के ज्ञान के लिए याचक बन कर आये हैं, अत: आप मुझ पर कृपा करें याचना नहीं।" कृपा यह कि हमारे पास संस्कृत ग्रंथो का नितांत अभाव है, धनाभाव के कारण हमारा मठ उन्हें उपलब्ध नहीं कर सकता है। अत: हमें आवश्यकता के अनुसार ग्रंथ उपलब्ध कराने की दया अवश्य करें। साथ ही यदि उन ग्रंथों को समझने में हमें कोई कठिनाई आये तो उनको हल करने में भी हमारी सहायता करेंगे। यह महज वार्ता नहीं थी, यह भारत के कायांतरण का, सुप्त भारत के जागरण के लिए उस महान उपक्रम का प्रारंभ था, जिससे आने वाले 12-13 वर्षो तक के लिए स्वामी विवेकानन्द को एक लक्ष्य प्राप्त हो गया। एक प्रेरणा प्राप्त हो गयी। इसको स्वामी जी ने एक मिशन के रुप में लिया जैसा कि अमेरिका जाने के पूर्व मद्रास में दिये अपने अंतिम भाषण में वे कहते हैं कि “हमारे शास्त्र ग्रंथों से भरे पड़े हैं, आध्यात्मिकता के रत्नों को जो कुछ भी मनुष्यों के अधिकार में मठों और अरण्यो में छिपे हुए है, बाहर लाना है।"  जिन लोगों के अधिकार में ये छिपे हुए है, केवल उन्हीं से इसका उद्धार नहीं करना है, वरन् उससे भी अभेद पेटिका अर्थात् जिस भाषा में ये सुरक्षित हैं, उन पर शताब्दियों से पर्त खाये हुए संस्कृत शब्दों से उन्हें निकालना होगा। तात्पर्य यह है कि मैं उन्हें सबके लिए सुलभ कर देना चाहता हूं। मैं इन तत्वों को निकाल कर सबकी, भारत के प्रत्येक मनुष्य की सम्पत्ति बनाना चाहता हूं। स्वामी जी इतने तक ही नहीं रुकते, वे कहते हैं कि संस्कृत की शिक्षा अवश्य ही होती रहनी चाहिए, क्योंकि संस्कृत शब्दों की ध्वनि मात्र से ही जाति को एक-एक प्रकार का गौरव, शक्ति और बल प्राप्त हो जाये"। मद्रास में उस काल में खड़े हो रहे सवर्ण-असवर्ण युद्ध को संकेतित करते हुए वे कहते हैं कि “ऐ पिछड़ी जाति के लोगों मैं तुम्हें बतलाता हूं कि तुम्हारे बचाव का, तुम्हारी अपनी दशा को उन्नत करने का उपाय संस्कृत पढ़ना है"। उनकी मान्यता है कि  संस्कृत में पाण्डित्य से ही भारत में सम्मान प्राप्त होता है"। स्वामी जी ने प्रमददास मित्र को जो वचन दिया था, उसका अपने जीवन के अंतिम दिन तक पालन किया। महासमाधि में जाने के दिन भी उन्होंने अपने कुछ शिष्यों को पाणिनि की अष्टाध्यायी पढ़ाया था।
स्वामी जी के लिए वाराणसी मात्र एक नगर नहीं है, अपितु यह भारत की आत्मा का प्रतिदर्शन है। भारत में आध्यात्मिक परिवर्तन तथा हिन्दू धर्म के पुनरोद्धार के, सेवा और संस्कार के कार्य का प्रारंभ करने की महनीय भूमि काशी ही है। जैसा कि रामकृष्ण सेवाश्रम बनारस की स्थापना के अवसर पर लिखी अपनी अपील में वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि अन्य तीर्थ स्थानों में लोग पाप से आत्म शुद्धि की खोज में जाते हैं और इन स्थानों से उनका सम्बन्ध यदा कदा संयोगवश और कुछ दिनों का होता है। यहां(काशी), आर्य धर्म के इस प्राचीनतम और जीवन्त केन्द्र में नर-नारी, अनपवाद रूप से वृद्ध और जरा-जर्जर, दुर्बल लोग, भगवान विश्वनाथ के मन्दिर की छाया तले परम पवित्रता दायक साधन मृत्यु द्वारा अनन्त मुक्ति प्राप्ति की कामना से उसकी प्रतीक्षा करने आते है"। स्वामी विवेकानन्द का यह विचार मात्र प्रशस्तिवाद नहीं है, जो काशी स्थित सेवाश्रम की अपील पर लिखा गया है। अपितु नवम्बर 1895 में लंदन से अपने गुरु भाई स्वामी अखण्डानन्द को लिखे पत्र में कहते हैं कि मठ या केन्द्र इस प्रकार की किसी संस्था की कलकत्ते में स्थापना करना व्यर्थ है। काशी ही ऐसे कार्यों के लिए उपयुक्त स्थान है। ऐसी बहुत सी मेरी योजनाएं हैं, परन्तु ये सब चीजें धन पर निर्भर करती है"। अर्थात् भारत में धर्म के जागरण के केन्द्र के रूप में काशी का महत्व स्वामी जी के मन में गहराई तक बैठा हुआ था। विश्वेश्वर भगवान विश्वनाथ के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा थी। काशी के प्रति उनके मन में उत्कृट लालसा थी। अन्य नगरों में उन्होंने धर्मोपदेश किये, किन्तु काशी की अपनी यात्राओं में काशी की संत परम्परा से अनुभूति पंथ ज्ञान ग्रहण करते रहे अथवा भारतीय संस्कृति के अनेक विस्तारों को समझने का प्रयास करते रहे। काशी की अंतिम यात्रा स्वामी जी ने वर्ष 1902 के फरवरी मास के काशी आने के पूर्व स्वामी जी बोध गया भी गये थे। बोध गया से सारनाथ की यह यात्रा बुद्ध की यात्रा जैसी ही रही। इस यात्रा में उन्होंने बौद्ध धर्म एवं हिन्दू दर्शन के बीच एक गहन तात्विक सबंध का निरुपण किया है। इसमें काशी और सारनाथ के समन्वय की छवि दिखती है। शायद इन दोनों के बीच के समन्वय के द्वारा भारत के पुनरोदय का प्रयास हो, इस कामना के साथ ही स्वामी जी ने काशी से ही स्वामी स्वरुपानन्द को पत्र लिखते हुए निर्देशित किया कि इस रहस्यमय विलक्षण एकता पर अधिक काम करने के लिए मेरे पास समय नहीं है, किन्तु मैं कुछ न कुछ ऐसे सूत्र अवश्य छोड़ जाऊंगा। जिसको आधार बनाकर आप सब को आगे काम करना होगा। काशी का विवेकानन्द के जीवन में संस्कृत, सेवा और समन्वय के साथ ही साहस के लिए प्रेरक अवसर प्रदान करने की दृष्टि से विशेष महत्व है। किन्तु काशी को लेकर के स्वामी जी के मन में अनेक दु:खद बाते भी रही। जो काशी के तत्कालीन परिवेश तथा समय के साथ उपजी कुरीतियों से जुड़ी हुई है। जिससे काशी की समकालीन दुर्व्यवस्था का उल्लेख तो स्वामी जी ने रामकृष्ण सेवाश्रम के लिये प्रकाशित अपनी अपील में भी किया है। जब वे कहते हैं कि काशी की जो नागरिक दुर्व्यवस्था है, तीर्थ यात्रियों, अशक्त एवं वृद्धजनों के लिए सुरक्षा स्वास्थ्य आदि की कठिनाई है। उसकी जिम्मेदारी स्थानीय तीर्थ पुरोहितों की ही नहीं है। इसके लिए काशी का स्थानीय नागरिक प्रशासन तथा नगर के सभ्यजन भी जिम्मेदार हैं। इससे नगर को मुक्ति मिले, इसके लिए सामूहिक प्रयत्नों की आवश्यकता पर उन्होंने बल दिया है। काशी के मन्दिरों की अव्यवस्था को भी लेकर उनके मन में क्षोभ था। विशेषत: श्रीमती ऐनी बेसेण्ट को विश्वनाथ मन्दिर में प्रवेश न दिये जाने वाली घटना को लेकर के वे दु:खी थे। किन्तु बौद्ध विदेशियों के प्रवेश की अनुमति को वे अनुकूल चिन्ह मानते थे। संक्षेपत: यह कहा जा सकता है कि वाराणसी को स्वामी जी सम्पूर्ण भारत के लिए नव जागरण के केन्द्र के रूप में देखते हैं। इस नगर से नये भारत के गढ़ने का स्वप्न उन्होंने अपनी प्रथम भारत यात्रा के साथ देखा था और उसको अपनी अंतिम तीर्थ यात्रा के क्रम में काशी में ही बीज रुप में बोया था।


सत्ता के क्रीत दास नहीं निर्भीक बनें शिक्षक

सत्ता के क्रीत दास नहीं निर्भीक बनें शिक्षक



समग्र शिक्षा मानव में अन्तर्निहित सद्गुणो की अभिव्यक्ति है, तो उच्च शिक्षा मूल्य संरचना, सद्गुणों की पहचान तथा भावी पीढ़ि के लिए ज्ञान के नवनवो- मेष का साधन है। पूरी में उच्च शिक्षा का सम्बन्ध उत्पादकता एवं प्रयोजन- परकता से न हो करके ज्ञान के अवाप्ति एवं उपार्जन से प्राप्त मूल्य बोध एवं आनन्द से रहा है। यही नवीन शोध एवं नयी संभावनाओं के दरवाजे खोलता है। भारत में इस दृष्टि से अविद्या एवं विद्या, तकनीक-विज्ञान, शिल्प तथा ज्ञान का भेद-अभेदपूर्वक स्वीकार किया गया है। शुद्ध विज्ञान कला, दर्शन, इतिहास इत्यादि का विवेचन अध्ययन एवं अध्यापन धर्म के रूप में प्रतिस्थापित करते हुए भारतीय परम्परा ने इस की अपरिहार्यता एवं सापेक्षिक श्रेष्ठता का प्रतिवाद किया है। किन्तु यह 1835 से 1885 के मध्यम पश्चिमी ढांचे में ढ़लने के बाद धीरे-धीरे लक्ष्य से भी भटकी हुई है। 1990 के बाद भारतीय शिक्षा विशेषत: उच्च शिक्षा ने नयी करवट ली है। उसने सम्पूर्ण उच्च शिक्षा को मानव संस्कृति के चैतसिक पक्ष से काट कर के नये कलेवर में खड़ा कर दिया है। आज के समाज में शिक्षा का पूर्णतावादी निदर्श समाप्त हो गया है तथा प्रयोजनमूलक अर्थ क्रियावाद ने शिक्षा को व्यक्ति निर्माण के स्थान पर श्रेष्ठतम मानव संसाधन निर्माण को शिक्षा के आदर्श के रूप में प्रतिस्थापित कर दिया है। परिणाम हुआ कि सांस्कृतिक विद्यायें, कला इत्यादि हासियें पर आ गये हैं। तो शुद्ध विज्ञान भी आज अध्ययन के चुनाव में द्वितीय, तृतीय क्रम पर आ गया है। तकनीक तथा प्रबन्ध का विज्ञानों के साम्राज्य में उदय होने और शनै:-शनै: सम्राट की भूमिका प्राप्त कर लेने के कारण शिक्षा व्यापार के रूप में उभर कर के आयी है। शैक्षिक संस्थान सेवा प्रदाता हो गये है, तो शिक्षक मानव संसाधन तथा छात्र उपभोक्ता की भूमिका में है। तकनीक जब शिक्षा का केन्द्रीय तत्व हो गया है, तो ज्ञान की अपेक्षा कौशल एवं शिल्प का ग्रहण ही शिक्षा का लक्ष्य हो गया है। इन परिस्थितियों के परिवर्तन के कारण शिक्षक की भूमिका समाज के निर्माता के रुप में नहीं बन पा रही है। अपितु शिक्षक समाज के लिए सुखोत्पादक वस्तुओं के प्रस्तुतकर्ता के प्रशिक्षक की स्थिति में आ गया है। यह नये प्रकार की शिक्षा है। जिसमें उपभोक्ता या प्रशिक्षु केन्द्रित उत्पाद या माडय़ूल प्रस्तुत करना शिक्षक दायित्व है। इसने शिक्षा को उद्योग बना दिया है। विश्व व्यापार संगठन ने शिक्षा को सेवा क्षेत्र में शामिल कर इसके व्यापारिक विस्तार के नये आयाम भी प्रस्तुत किये है। ज्ञान केन्द्रित समाज में ज्ञान का अर्थ सद्गुण नहीं है, अपितु सूचनाएं हैं। परिणामत: शिक्षक सद्गुणों के विकास की अपनी केन्द्रीय भूमिका से दूर हटकर के सूचनाओं के स्रोत एवं अन्तरक की भूमिका में आ गया है। इस नये अवतार में शिक्षक न तो समाज में सर्वोच्च सम्मान का हकदार है, न तो भविष्य का निर्माता अपितु यह उसकी भूमिका एक ऐसे प्रबंधक की है, जो युवाओं को कौशल सम्पन्न बनाने के लिए जिम्मेदार है। इसका परिणाम है कि ज्ञान के नवनवोन्मेष का केन्द्र आज विश्वविद्यालय व महाविद्यालय न हो करके कारपोरेट जगत हो गया है। शिक्षण संस्थाएं भारत में कानूनन लाभ का व्यवसाय नहीं हैं। कोई व्यक्ति पूंजी निवेश कर किसी शैक्षणिक संस्थान से लाभांश नहीं अर्जित कर सकता है। इसके होते हुए भी निजीकरण, उदारीकरण एवं वैश्वीकरण ने इसको लाभ का व्यवसाय बना दिया है। ज्ञान जो आनन्द का, निरतिशय आनन्द के प्रयोजन हीन-सुख का साधन माना जाता रहा है। उसमें नयी विश्व व्यवस्था के कारण भूचाल आ गया है। शिक्षा एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें कभी भी संतृप्तता नहीं आ सकती है। यह नियमित चलने वाली प्रक्रिया है। इस प्रकिया पर पूंजी के द्वारा पकड़ बनाकर लाभ अर्जित किया जा सकता है। इस संभावना ने शिक्षा संस्थानों को व्यापारिक केन्द्र बना दिया है। इस विकट स्थिति में शिक्षक के समक्ष दोहरी चुनौती है। ऐन्द्रिक संवेदन के स्तर पर सुखोपार्जन के लिए युवा में कौशल उत्पन्न करते हुए उसे उच्चतम शुभ की प्राप्ति के लिए दृष्टि प्रदान करना है। इस भूमिका का सार्थक निर्वहन तभी संभव है। जब युवा को समग्रता में सामने रख करके नीति बनायी जाय। एलपीजी की आंधी में समग्रता में सोचने का स्वभाव समाप्त हो गया है। राजकीय आश्रय में रहकर राजधर्म के बाहर नहीं सोचा जा सकता है। शिक्षक भी राजसत्त्ता के क्रीतदास की स्थिति में आ गया है। उसके स्वतंत्र एवं निर्भीक सोच तथा जड़ता विहीन कार्यपद्धति को सत्ता एवं कारपोरेट जगत के प्रभाव ने कुंद कर दिया है। इसका परिणाम हुआ है, शिक्षक समूह में सृजनात्मक कल्पना समाप्त हो गयी है। यह सृजनात्मक कल्पना देश एवं काल के साथ शिक्षा को संमजित करते हुए अनागत काल के अनुरुप दृष्टि निर्माण करती है। इसके लिए नयी विश्व व्यवस्था के अनुरुप शिक्षा की प्रतिरुप का विकास करना होगा। साथ ही साथ शिक्षक समाज की जिम्मेदारी है कि इस अनुकूल परिस्थिति के निर्माण के लिए नैतिक नेतृत्व करने के अपने इतिहाससिद्ध भूमिका को वह पुन: स्वीकार करे। नैतिकता एवं जीवन मूल्यों के संरक्षण संवर्धन का कार्य शिक्षक का प्राथमिक दायित्व है। इसे मीडिया और चैनलों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है। व्यक्ति से व्यक्ति का शिक्षण ही आदर्श एवं व्यवहार के अन्तर को कम करता है। इस लिये समाज के श्रेष्ठतम आदर्श को अपने जीवन में उतार कर युवा पीढ़ी को प्रेरणा देने वाले शिक्षक की भूमिका कालजयी है। इस भूमिका से शिक्षक विचलित होता है। जो समाज पद दलित हो जाता है। मानव जाति के निरन्तर विकास की प्राथमिक भूमिका शिक्षक की हे। इस भूमिका को उसे सर्वदा बना करके रखना ही होगा।