सन्यास सहिष्णुता तथा लोक संग्रहका मार्ग है।
योग गुरू बाबा रामदेव के शंकराचार्यविषयक अभिकथन पर काशी और हरिद्वार सहितदेशभर के साधु संन्यासी एवं दशनामी परंपरा के महनीयानुयायियों ने जिसप्रकार से प्रतिक्रिया की उससे सनातन धर्म के तालिबानीकरण की गन्ध आने लगी है।शांकर मत धर्म नहीं है यह दर्शन है दर्शनमत वैभिन्य के द्वारा ही विकसित होता है। यह अकेला दर्शन भी नहीं है। सबसे प्राचीन भी नहींहै।भारत के वैचारिक इतिहास में इसका प्रतिरोध भी पहली बार हुआ हो ऎसा भी नहीं है यह दर्शन तो बौद्धों एवं जैनों के साथ खण्डन मण्डन पुरस्सर ही विकसित हुआ है। कुमारिल के निर्देश पर मण्डनमिश्र के साथ हुआ शास्त्रार्थ विश्वविश्रुत है। स्वयं जगद् गुरू आदि शंकर सांख्यों को मल्ल कहते हैं।
आधुनिकारत में भी महर्षि दयानन्द तथा महर्षि अरविन्द द्वारा आचार्य शंकर के सिद्धान्तोंकी प्रखर आलोचना हुई है। किन्तु इन सबके होते हुये भी न तो भगवपाद् शंकर की अवमानना हुई न इन आलोचको को दबाव में लाने की कॊशिश ही दिखाई देती है। भ्हरतीय परम्परा तो यह मानती है कि धरमकातत्त्व किसी गहन गुफ़ा में है औरश्रेष्ठ जन जिस मार्ग पर चलते हैं वही धर्म पथ है। सत् का पथ इकलौता नही है। पुष्पदन्त के शब्दॊ में कहें तो रूचिनां वैचित्र्याद् ऋजु कुटिल नाना पथजुषाम्। रास्ते अनेक हैं , शंकर के पूर्व भी थे, शकर के पश्चात् भी हैं, शकराचर्य कातो है ही उनके अलावा भी है। यहा तक कि समस्त वेदान्त संकर का अद्वैत मत ही नहीं है।
दर्शन के विद्यार्थी तथा अध्येता के रुप में मै यह मानता हूं कि आद्वैत मत भारतीय दर्शनो में श्रेष्ठतम है किन्तु यह श्रेष्ठता युक्ति तथा तर्क के धरातल पर है । किन्तु आचरण के धरातल पर यह एकमेव है ऎसी अवधारणा कभी नहीं रही है। जिस प्रकार का शोरशराबा हुआ है वह सनातन धर्म के अज्ञान का परिचायक है।
सभी प्रकार क्र् विरोधों के होते हुए भी काशी एवं हरिद्वार में सन्तों की प्रतिक्रिया सनातन धारा को चोट तो पहुंचाती ही है मध्यकालीन चर्च के व्यवहार तथा तालिबानी कार्य पद्धति की स्मृति करा देती है। चाहे जिस रुप में इसको लिया जाय भारत भूमि में स्वीकृता एवं प्रचलित सनातन पुरातन तथा सनातन वाद पथ के अनुकुल नहींहै। आखिर योगदरषन के प्रतिपादक पतंजलि का अनुयायी ब्रह्मसत्यं जगतमिथ्या के सिद्धान्त के साथ सहमत हो इसके लिये उसे बाध्य करना है क्या? असहमति का प्रकटीकरण अपराध है क्या?
असहमति या विरोध का होना स्वाभाविक है उसको दूर करने का र्यास उचित तथा श्लाघ्य है। किन्तु इसके लिये दर्शन के क्षेत्र में शास्त्रार्थ की स्वीकृत विधि का ही उपयोग होना चाहिये। बल से, दबाव से अथवा प्रभाव से सहमति बनाने की विधि सनातन परम्पराके अनुकुल नहींहै।