भारत की स्वतन्त्रता और स्वातन्त्रयोत्तर भारत के निर्माण पर कांग्रेस की वैचारिकी का गहन प्रभाव है| महात्मा गान्धी के लाख प्रयास के बावजूद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का राष्ट्रीयकरण न हो सका | शायद यही कारण रहा होगा कि महात्मा गान्धी ने कांग्रेस के विसर्जन का प्रस्ताव किया था, क्योकि भारत की आजादी निश्चित रूप से गान्धी के हिन्द स्वराज के सपनो की आजादी नहीं थी| जबकि गान्धी के हिन्द स्वराज उनके चिन्तन की वह पक्की किताब थी जिसके एक शब्द मे वह परिवर्तन को तैयार न थे | दूसरी ओर कांग्रेस नेतृत्व, विशेषतः जवाहरलाल नेहरू साम्यवादी भौतिकतावाद और पश्चिम की औद्योगिक क्रान्ति के इस प्रकार से मुरीद थे कि उन्हे भारतीयता के प्रश्न निहायत बचकाने और प्रदर्शन प्रतिगामी लगते थे | उनको यह सब कुछ कांग्रेस के ऐतिहासिक दायाद के रूप में सहज ही प्राप्त था| फलतः स्वातन्त्र्योत्तर भारत में विकसित राष्ट्र जीवन पर पश्चिमी चिन्तन एवं जीवन प्रणाली का ऐसा घनघोर प्रभाव दिखता है कि यह एक तरह से यूरण्डपन्थी दादागिरी (Eurocentric suppression) ही सर्वत्र प्रभावी है| इसका परिणाम यह हुआ कि पश्चिम विशेषतः यूरोप के सभ्यता मूलक विमर्श से अलग और भिन्न चिन्तन और जीवन दर्शन को जो अपने मूल स्वभाव में देशज एवं अत्यन्त मौलिक था, पोगापन्थी, साम्प्रदायिक, प्रतिगामी , फासिस्ट और दकियानुस आदि विविध प्रकार के अपशब्दो एवं गालियों से नवाज कर, भारत के मूल को समाज की मूलधारा से अलग रखने का बहुशः यत्न भी भारत की राजनैतिक आजादी के दिनो से ही दिखाई देता है |यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि स्वातन्त्रयोत्तर भारत के सभी क्षेत्रों में चाहे वह राजनैतिक क्षेत्र हो या प्रशासनिक, शिक्षा हो या जन संचार या मीडिया चहुंओर निकष निदर्श और प्रतिमानो का का ही प्रयोग दिखता हैं जो अपने मूल में या तो रोमन कैथोलिक ईसाई मत या उसके विरोध में जन्में प्रोटेस्टेन्ट मत का प्रतिफलन है | यूरोपीय अवधारणाओ के प्रभुत्त्व का परिणाम यह हुआ कि भारत का समस्त सामाजिक चिन्तन, उसका गौरवशाली इतिहास मूल्याधिष्ठित परम्परा जिसमें साहित्य, कला, नीति के साथ साथ विज्ञान, तकनीक के भारतीय पर्याय सभी कुछ समाविष्ट हैं, का मूल्यांकन अत्यन्त अनादर और निराशा के साथ हुआ | वस्तुतः समस्त भारतीय ज्ञान विज्ञान यूरो केन्द्रितता में सांस्कृतिक पिछडेपन(Cultural lag) का प्रदर्शन मात्र समझ लिया गया | वस्तुतः यूरो संकेन्द्रितता सामी विश्वदृष्टि का ही प्रतिफलन है| यह विश्व दृष्टि मिथ्या ही सही, शताब्दियों तक विश्व सभ्यता के निर्माता के रूप में स्थापित रही है| किन्तु अपने आन्तरिक संघर्ष के कारण इस सभ्यता को सभ्यताओं के संघर्ष की अपरिहार्यता का प्रतिपादन कराना पडा | ध्यान देने की बात यह है कि मूल ईसाई विचार करूणा प्रेम और सेवा का प्रतिपादक रहा है| बाद के दिनों में विकसित स्वतन्त्रता समानता और बन्धुत्व का लोकतान्त्रिक आदर्श भी इसी ईसाई मूल का प्रतिफल था| बीसवीं शताब्दी के अन्त में इस्लामी राष्ट्रो के आर्थिक अभ्युन्नति तथा साम्यवाद के तिरोभाव के बाद इस यूरोपीय विचार को पहली बार अपनी वैचारिकी को ऐसे सिद्धान्त का सामना करना पडा जो मूल में सामी होते हुये भी ईसाई सभ्यता के छद्म करूणामूलक सेवाधर्मी रूप का प्रखर प्रतिरोधी और ईसाई एकाधिकारिता प्रबल विरोधी था | छद्म दया व करूणा के पारंपरिक हथियारों से उस पर विजय संभव न थी | आधुनिक शिक्षा के द्वारा संस्कार परिवर्तन को भी इसके मुकाबिल खडा नहीं किया जा सकता था| क्योंकि शिक्षा और उसके माध्यम से अभ्युन्नति को इस जडवादी सभ्यता ने अपना जीवन लक्ष्य समझा ही नहीं था| साथ सभ्यताओं के संघर्ष का कथित पश्चिमी नवाचार इसके मूल में ही था | इसलिये सभ्यताओं यह संघर्ष मात्र वैचारिक अथवा आस्था संस्थान को तोडने वाला ही न होकर इससे बडे और भंयकर लक्ष्य वाला है | इसका लक्ष्य है वास्तविक युद्ध के द्वारा अपने विरोधी आस्था संस्थान और विचार का समूलोच्छेद| अतः इस के प्रतिकार के लिये व्यापक विमर्श की आवश्यकता है | च्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जो इस यूरो ईसाई सभ्यता से आक्रान्त न हो| भारत के चित्त मानस और काल पर इस विजातीय वैचारिकी का प्रभाव इतना तीक्ष्ण और सघन है कि इ किसी एक क्षेत्र विशेष में इसके प्रतिकार का प्रयास इस को निष्प्रभावी नहीं कर सकता है अपितु इस प्रकार के एकांगी और एकदेशीय प्रयास इस विषाणु को नया रूप लेकर अन्य क्षेत्र मे प्रसारित होने मे उपादेय हो सकते हैं|