शनिवार, 13 नवंबर 2010

भारत का मूल विचार --- हिन्दुत्त्व- 2


जीवन और चिन्तन की इस विशिष्टता को हम निम्न बिन्दुओं के आधार पर समझ ने का प्रयास करें तो संभवतया सर्वाधिक प्रभावकारी किन्तु उतने ही जटिल इस विषय को समझने में कुछ सौविध्य हो सकता है।
- दुनियाँ में श्रेष्ठतम चिन्तन
- विश्वमें प्रथम बार जीवन को वैचारिक आधार्
- अपरिवर्त्य (नित्य) विनाशी( अनित्य) के बीच समन्वय
- वैश्विक कल्याण की दृष्टि
- विज्ञान एवं अध्यात्म का समन्वय
यह सत्य है की वैचारिकी और चिन्तन के क्षेत्र में भारतीय चिन्तन जिसे हम सब हिन्दुत्त्व के नाम से जानते हैं, विश्व का अकेला विचार नहीं है। किन्तु यह सत्य है और विरोधपूर्वक अथवा अविरोधपूर्वक, जिस किसी भी रूपमें प्रत्येक व्यक्ति यह स्वीकार करता है कि हिन्दू चिन्तन दूनियाँ का सबसे पुराना चिन्तन है। यह अत्यन्त प्राचीन काल से आज तक मूल रूप में जीवित चिन्तन है, अतः चिरन्तन चिन्तन है। इस विचार का उदय मानव चेतना और उसकी चिन्तन शक्ति के अभ्युदय के साथ ही होता है। यह एक विशिष्ट प्रकार की विश्वदृष्टि है। इस विश्व दृष्टि के तीन आधार हैं। प्रथम तो यह कि सत् एक (एकं सत्) अर्थात् समस्त जगत् एक अखण्ड ईकाई है, सम्पूर्ण जीवन एक अविभक्त रचना है। विभाजन या भेद प्रतीति के स्तर ही है। भेद की प्रतीति भी अभेद के धरातल पर ही होती है। यदि सभी प्रकार के अनुभव का आधार एक अविभक्त अखण्ड सत् नहीं है तो समस्त अनुभव विविक्त संवेदना है। यह भी कहा जा सकता है कि मात्र विविक्त संवेदना की सत्ता होने पर अनुभव संभव ही नहीं है। क्योंकि अनुभव भव के पश्चात् है। जो है या हो गया है, उसके ज्ञान को ही अनुभव कहते हैं। एक अनुभव का दूसरे अनुभव के साथ संवाद आवश्यक है। इसलिये विविध अनुभव को संभव बनाने वाली एक अखण्ड सत्ता अपरिहार्य है। प्रपंच की स्थिति प्रपंचातीत पर ही आधारित है।
दूसरा उतना ही महत्वपूर्ण सिद्धान्त है सबको साथ देखना सर्वमयता में देखना। सर्वमयता में देखना, सबको देखना, साथ देखना ही सही देखना है। इसलिये हिन्दू सर्वत्र जीवन देखता है, मृत्यु नहीं। मृत्यु तो खण्ड में देखना है। कुछ देखना और कुछ को नहीं देखना है, भेद दृष्टि से देखना है। भेद दृष्टि भय उत्पन्न करती है। पराये और परायेपन के होने के अतिरिक्त भय कुछ भी नहीं है। जो अपना नहीं है वह भयभीत करता है।
नाश तो भारत की धर्म दृष्टि में कभी स्वीकार ही नहीं किया गया है। कुछ भी नष्ट नहीं होता है। जिसे सब नाश समझते हैं हिन्दू उसमें रुप परिवर्तन मात्र देखता है। इसीलिये मृत्यु देहावसान मात्र है। पंचमहाभूतों का विलयन मात्र है, विलगाव है नाश नहीं। स्थूल से सूक्ष्म तथा सूक्ष्म से स्थूल होने की प्रक्रिया जन्म और मृत्यु है। नाश शब्द न और आश् शब्द के योग से बना है। जिसका अर्थ है जैसा था वैसा नहीं है। इसलिये जब किसी वस्तु को नश्वर कहा जाता है तो इसका तात्पर्य परिवर्तनशीलता ही होता है। नहीं है समाप्त हो गया जैसे शब्द तो भारत की संस्कृति में कभी स्वीकृत ही नहीं रहे हैं। जो नहीं है, वह नही था। जो है, वह था और वह रहेगा। इस रहने और न रहने के बीच ही संभूति है। संभूति अर्थात् जो होता रहता है। यही होने की प्रक्रिया जब स्थूल से सूक्ष्म की ओर होती है तो हम मृत्यु समझते हैं और जब सूक्ष्म से स्थूल की ओर होती है तो जन्म समझा जाता है।
इस दृष्टि को विज्ञान की तुला पर् तौला जा सकता है तो अध्यात्म की भूमि पर भी समझा जा सकता है। महर्षि अरविन्द के शब्दों में कहा जाय तो यह एक ही सत्ता के आरोह एवं अवरोह की ऐसी विधि है जिसका सैद्धान्तिक रुप से एक साथ भौतिक विज्ञान, जीवन विज्ञान तथा समाज विज्ञान में किया जाना सहज और सरल है।इसे सात्मीकरण और विभेदीकरण के आधार पर इस रुप में समझ सकते हैं कि जहां रूपं रूपं पर्तिरूपं बभूव – एकोsहं बहुस्यामः की सृष्टि प्रक्रिया है तो दूसरी ओर प्रतिरूप से विरूप होने की प्रणाली भी है। प्रतिरूपण बाँधता है, बांटता है। टुकडो में बंटी चैतन्य शक्ति को एकाकार करना ही मुक्ति है। मुक्ति इस लोक से परे घटने वाली कोई घटना नहीं है। अपितु इसी काल में, इसी जीवन में प्राप्य है क्यों कि यह और कुछ नहीं टुकडो में देखने वाली दृष्टि का नाश है। “सर्वदृष्टि प्रणाश” की यह मान्यता वैदिक एवं बौद्ध दोनो प्रणालियों को सहज स्वीकार है।
यह बात कुछ अजीब सी लगती है। इसलिये अजीब लगती है कि हमनें आधुनिकता के नाम पर एक विशिष्ट किस्म का चश्मा अपनी आँखों पर चढा लिया है जो इन्द्रियगोचर जगत् से परे किसी अन्य सत्ता की संभावना को इस आधार पर अस्वीकार नहीं करता कि सत्यापनीयता संभव नहीं है।सत्यापन किसी सत्तावान पदार्थ के अस्तित्व की अनिवार्य शर्त नहीं है। विचारों के जगत (World of Ideas) में तो यह कथमपि संभव नहीं है। यदि इन्द्रिय गोचरता को ज्ञान की अनिवार्य शर्त मान लिया जाय तो ज्ञान में नवन्वोन्मेष की संभवना ही समाप्त हो जायेगी। इसी कारण भरतीय विचार प्रणाली ने इन्द्रियगोचरता को ज्ञान की उपष्टम्भक भूमिका तो स्वीकार की है लेकिन ज्ञान की अनिवार्य शर्त नहीं माना है।
पश्चिम में प्रमाणवादी चिन्तन ( Positivist Thinking) के उदय के पूर्व ही कुछ अन्य ऐसे विचार दिखाई देते हैं जिसके फल स्वरूप विश्व के उद्गम एवं अन्त की भौतिक, यान्त्रिक तथा संघर्षात्मक रचना की मान्यता को स्वीकृति प्राप्त हुई। यह आकिर्मिडीज की इस स्थापना के साथ शुरु होता है कि जगत् एक यान्त्रिक रचना है यान्त्रिक नियमोंके उपयोग से इसका रुप परिवर्तन हो सकता है। इसके साथ ही डार्विन के जैवविकासवाद तथा सुमेरन की की समाज की व्यावसायिक उद्यमशीलता ( Society is an Enterprise ) के सिद्धान्त ने इसकी जडात्मकता और यान्त्रिकता, को कठॊर सिद्ध तथ्य के रुप में स्थापित किया है। वस्तुतः पश्चिम में विकसित इस जगत की जडात्मकता और यान्त्रिकता का सिद्धान्त उसके सामी मूल में ही छिपा हुआ है। सामी धर्मों में पुरुष के अतिरिकत किसी अन्य जीव में आत्मा को मान्यता नहीं है। बडे विरोध और दबाव के बाद चर्च ने स्त्री देह में आत्मा को स्वीकार किया है। किन्तु यह मान्यता भी अभी उनकी पान्थिक सीमा में समानता के स्तर पर नहीं पहुंच सका है। इसके विपरीत भारतीय विश्वदृष्टि में इस जगत् तथा जगत से परे सर्वत्र एक ही चैतन्य के अभिव्य्जना को स्वीकार किया गया है। जिसने इस विश्व को जड यान्त्रिकत का शिकार नहीं होने दिया, न तो इस् विश्व को मनुष्य के उन्मुक्त उपभोग के साधन के रुप में भी नहीं स्थापित होने दिया।
भ्हारटीयता का हर्द यही है यही वह तीसरा विचार बिन्दु है, वह स्थला है जंहा भारत भारत भाव को प्रकर्ष रुप से प्रकाशित होता है।यह है मनुषय की सर्व कार्यक्षम क्षमता और असिंअ अधिकार की स्वीकृति के साथ ही स्वजन्य सीमांकन। उपनिषद् इसी को तेन त्यक्तेन भूञ्जीथा के भाव के साथ प्रकट करता है। वस्तुतः भोग कर्म का हेतु तथा कारण दोनो है। हेतू होने का अर्थ है जिसको अभिलक्ष्य करके कर्म में प्रवृत्ति होती है। लाघव से लक्ष्य सिद्धि होने पर गौरव प्रयास कोई नहीं करना चाहता है। इसी लाघव दृष्टि का परिणाम है कि पश्चिमी जीवन में धरती पर स्वर्ग रचने का प्रयास होता रहा है। उसका स्वाभाविक निहितार्थ उपभोग के भौतिक साधनो की उपलब्धि अर्जित करना ही है। इसके समानान्तर भारतीयता कर्म और विकर्म के बीच सन्तुलन है। उपभोग की स्वीकृतिपूर्वक उपभोक्तावाद का निषेध तथा त्याग का अंगीकरण है। त्यागपूर्वक उपभोग , सब कुछ स्वयं का होते हुये भी स्वयं को उपभोग का एकमेव अधिकारी न समझना ही त्यागपूर्वक उपभोग है। यह सृष्टि नित्य है, ईश्वर की चैतसिक अभिव्यञ्जना है। यह् अभिव्यञ्जना मनुष्य तथा मनुष्येतर सबके लिये समान ही है। पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती के लिये भी समान है। इसी कारण से यहां धर्मदृष्टि को सनातन कहा गया है। सनातन की स्वीकृति एक ऐसा विशिष्ट विधान है जो परिवर्तन और तथा नित्यता के बीच समन्वय करता है। यह मानवीय व्यवहार में जडता का निषेध तो करता ही है पूर्ववर्ती के निषेध का भी निषेध है। सनातनता पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती के बीच सातत्य है। साधन तो युग और काल की गति के साथ परिवर्त्य है। नितान्त प्राचीन के स्थान पर नित नूतन साधनों का अविष्करण करते हुए अधुनातन साधन सम्पन्नता तो वरेण्य है। पर साध्य का संशोधन न तो सम्भव है न तो अपेक्षित ही है। इस विषय में पूर्व में भी चर्चा कर चुका हूँ कि बन्धन को तोडना सीमाबद्धता को अस्वीकार करते हुए नि:सीम होना तो इस दृष्टि का स्वभाव ही है। यही स्वभाव-साध्य भी है किन्तु इस समय साध्य का अर्थ वैरागी होना नही है अपितु समग्र सक्रियता है। अपने परिवेश के प्रति सजग होना जिम्मेदार होना, सबका अवधान करते हुए मुक्ति की कामना संभव है। यह अवधान मात्र समकालीन के प्रति नही है अपितु पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती के प्रति भी है। इसलिए भावी जीवन के प्रति, वैयक्तिक नही सामूहिक जीवन के प्रति उत्तरदायित्व का भाव तथा उसकी पूर्ति का उपक्रम ही कर्म है। “ऋणत्रयं अपाकृत्य मनो मोक्षे निवेशयेत्”। “पितृ ॠण,देव ॠण तथा ॠषि ॠण के रुप में तीन ॠण व्यक्ति के जीवन मॆं जन्म से प्राप्त है। इन ॠणॊं की पूर्तिपूर्वक ही, बन्धन से मुक्ति का मार्ग खुलता है। किन्तु तीन ॠणॊंसे बात समाप्त नही होती है। मनुष्य अपने जन्म से लेकर समग्र विकास यात्रा मे लोक से कुछ प्राप्त करता है, समाज से लेता है उसे भी ॠणके रुप में स्वीकार करते हुए नृ ॠण के रुप में एक चतुर्थ आयाम दिया गया।
ये ॠण अपने आप में मनुष्य के लौकिकीकरण या धर्म के ऐहिक जीवन के सरोकार को प्रतिपादित करने वाले हैं। पिता का ॠण पिता को नहीं लौटाना है। इसे पुत्र को सौपना है। गुरु का या आचार्य का ॠण गुरु दक्षिणा के रुप में आचार्य को नही वापस करना है, अपितु ज्ञान विज्ञान की परम्परा का विकास करते हुए उसे अपने आचार्य से प्राप्त के साथ उत्तरवर्ती पीढी को देना है।
यज्ञ अर्थात् कर्म की श्रृंखला-- कर्म तथा कर्मफल की कामना के लिए कर्म न करते हुए इदम् इन्द्राय न मम्, इदम् राष्ट्राय न मम् की भावना के साथ कर्म अकर्म है ।कर्तृत्वाभिमान ही सभी प्रकार के बंधनों का कारण है। कर्तापन का बोध व्यक्ति को फलोपभोग की कामना से बांधता है। यही सभी बन्धनो का मूल है। करते हुये बी नकरने का भाव मनुष्य को मुक्ति की ओर प्रगमित करता है। यह मुक्ति सहज नहीं है, कठिन तप है। इसपर सहज और सुकर तभी बनाया जा सकता है जब इसे सामाजिक व्यवस्था का भाग बनाया जाय। ऋणों की अवधारणा इसका प्रस्ताव है। दार्शनिक चिन्तन तथा अनुभव के विश्लेषण से प्राप्त सृष्टि के गुढ रहस्यों को जन साधारण के लिये प्रस्तुत करने का वैचारिक एवं व्यवहारिक उपक्रम है।
अकर्म का अर्थ कर्महीनता नहीं है। नैष्कर्म्यसिद्धि सम्पूर्ण सक्रियता है। इस सक्रियता का परिणाम रहा है कि तकनीक में उपयोगिता की चिन्ता और कामना किये बिना विज्ञान के विकास के विकास का प्रयास धार्मिक जीवन के पर्याय के रुप में देखा गया है। विद्या की उपासना अमरत्व के लिये अपेक्षित और आवश्यक मानी गयी है। विद्या की अवाप्ति का प्रथम सोपान मृत्यु पर विजय प्राप्त करना है। इस विजय प्राप्ति के उपक्रम में विद्या और अविद्या दोनो का समन्वय चाहिये। एक की उपासना में रत अन्धकार में जाता है। किन्तु अविद्या अर्थात् भौतिक दृष्टि से जगत् को जाननने समझने का प्रयास कभी भी उपेक्षा का विषय नहीं रहा है।
दुनियाँ के तमाम उपासना पन्थों ने विज्ञान की प्रगति तथा धर्मग्रन्थों के जगत विषयक व्याख्या के भेद पर वैजानिक अन्वेषणाओं का जिस प्रकार कठोर प्रतिवाद किया है वैसा कठोर प्रतिवाद नतो भारत में दिखाई देता है न तो भारत के वैचारिक धरातल पर संभव ही था। इसकि स्पष्ट करने के लिये मात्र एक उदाहरण ही पर्याप्त है कि आचार्य वराहमिहिर जैसा व्यक्ति उद्घोषणा करता है कि यवन म्लेच्छ होते हुये भी ऋषि के समान पूज्य हैं क्यों कि ज्योतिष के क्षेत्र मेंउन्होने प्रामाणिक ज्ञान अर्जित किया है। इस घोषणा का महत्त्व इसबात से समझा जा सकता है कि मन्त्रों के साक्षात्कार कर्त्ताओं के अतिरिकत किसी अन्य को ऋषि नहीं कह जाता है। तथापि वराहमिहिर यवन अध्येताओं को मात्र ऋषि कहने तक सीमित नहीं है अपितु वे उन्हे ऋषियों के समान ही पूज्य भी बताते हैं।
ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में सांस्कृतिक परिवेश से परे जाकर श्रेष्ठ सिद्धान्तों को ग्रहण करने तथा मान्यता देने की प्रणाली भारतीय परंपरा में प्रारंभ से ही प्राप्त है। इसे ऋग्वेद के इस मन्त्र में देखा जा सकता है कि आनो भद्राः क्रत्वोयन्तु विश्वतः, अर्थात श्रेष्ठ और शुभ विचारों को सम्पूर्ण विश्व से आने दो। इस के पीछे का वैचारिक कारण यह है कि हिन्दु जीवन दर्शन में यह मान्यता पर विश्वास नहीं करता है कि अन्तिम बात ईश्वरीय आदेश के रुप में कह दी गयी है। अब उससे आगे और कुछ भी नया कहे जाने की संभावना समाप्त हो गई है।
भारतीय धर्म दृष्टि को समझने के लिये सर्वाधिक आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण है संस्कार प्रणाली को समझना, यज्ञ के निहितार्थ एवं फलितार्थ को समझना। बिना संस्कार और यज्ञ को समझने बिना कॊई भी व्यक्ति हिन्दुत्व को नहीं समझ सकता है। संस्कार प्रकृत में सगुण एवं सचेत हस्तक्षेपपूर्वक संस्कृत का उदय है। इसीलिये जब हिन्दु जीवन की ओर देखता है तो मात्र सर्वमयता में नहीं देखता है संस्कारित सर्वमयता में देखता है। इस संस्कारित सर्वमयता में देखने का परिणाम है कि अशुभ का समानान्तर अस्तित्व इस संस्कृति में स्वीकार नहीं है। अशुभ और कुछ नहीं है यह मनुष्य के अज्ञान का परिणाम है, फल है। ज्ञान की उपलब्धि के साथ ही अविद्या का परिलोप हो जाता है। अज्ञान के तिरोभाव तथा ज्ञान के आविर्भाव के लिये संस्कारों की आवश्यकता होती है। संस्कार प्राकृत जीवन और प्राकृत शरीर में संस्कृति का उद्भावन है। शरीर पिण्ड को अनवरत संस्कारित कर उसे तेजोमय चैतन्यावच्छिन्न बनाने की विधि ही इस धर्म पथ को सनातन तथा सार्वकालिक आदर्श प्रणाली के रुप मे ढालती है।
संस्कार को हम सामान्य रुप में औपचारिक कर्मकाण्ड से अधिक कुछ भी नहीं समझते हैं। किन्तु संस्कार वाह्य आडम्बर या किसी धार्मिक विधि के क्रिया पक्ष मात्र नहीं हैं। अपितु यह श्रेष्ठ होने तथा तथा श्रेष्ठतम बनाने की भावना का उन्मेष है। जो प्राकृत है उसे संस्कृत करना अर्थात् और अधिक तोषदायक बनाना , सर्वसंगत बनाना ही संस्कार है। जीवन का प्रत्येक सोपान कर्मों की अविच्छिन्न श्रृंखला का परिणाम है। किन्तु कर्म परिणाम से उद्भूत जीवन को यथावत न रहने देना, अपितु सचेत मानव हस्तक्षेप के द्वारा उसे सगुण एवं सुष्ठु बनाना ही संस्कारों का वास्तविक उद्देश्य है।