रविवार, 16 अगस्त 2009

सन्यास सहिष्णुता तथा लोकसंग्रह का मार्ग है।
योग गुरू बाबा रामदेव के शंकराचार्य विषयक अभिकथन पर काशी और हरिद्वार सहित देश भर के साधु संन्यासी  एवं दशनामी परंपरा के महनीय अनुयायियों ने जिसप्रकार से प्रतिक्रिया की उससे सनातन धर्म के तालिबानीकरण की गन्ध आने लगी है। शांकर मत धर्म नहीं है यह दर्शन है दर्शन मत वैभिन्य के द्वारा ही विकसित होता है। यह अकेला दर्शन भी  नहीं है।  सबसे प्राचीन भी नहीं है।भारत के वैचारिक इतिहास में इसका प्रतिरोध  पहली बार हुआ हो ऎसा भी नहीं है। यह दर्शन तो बौद्धों एवं जैनों के साथ खण्डन मण्डन पुरस्सर ही विकसित हुआ है। कुमारिल के निर्देश पर मण्डनमिश्र  के साथ हुआ शास्त्रार्थ विश्वविश्रुत है। स्वयं  जगद्गुरू आदिशंकर सांख्यों को अपने सिद्धन्त के विरूद्ध प्रधान  मल्ल कहते हैं।

आधुनिक भारत में भी महर्षि दयानन्द तथा  महर्षि अरविन्द द्वारा आचार्य शंकर के सिद्धान्तों की प्रखर आलोचना हुई है। किन्तु इन सबके होते हुये भी न तो भगद्पाद् शंकर की अवमानना हुई न इन आलोचको को दबाव में लाने की कॊशिश ही दिखाई देती है। भारतीय परम्परा तो यह मानती है कि धर्म का तत्त्व किसी गहन गुफ़ा में है और श्रेष्ठ जन जिस मार्ग पर चलते हैं वही धर्म पथ है। सत् का पथ इकलौता नही है। पुष्पदन्त के शब्दॊ में कहें तो रूचिनां वैचित्र्याद् ऋजु कुटिल नाना पथजुषाम्।  रास्ते अनेक हैं , शंकर  के पूर्व भी थे, शकर के पश्चात् भी हैं, शंकराचार्य का तो है ही  उनके अलावा भी है। यहां तक कि समस्त वेदान्त शंकर का अद्वैत मत  ही नहीं है।

दर्शन के विद्यार्थी तथा अध्येता के रुप में मै यह मानता हूं कि आद्वैत मत भारतीय दर्शनो में श्रेष्ठतम है किन्तु यह श्रेष्ठता युक्ति तथा तर्क के धरातल पर है । किन्तु आचरण के धरातल पर यह एकमेव है एसी अवधारणा कभी नहीं रही है। जिस प्रकार का शोरशराबा हुआ है वह सनातन धर्म के अज्ञान का परिचायक है। 

सभी प्रकार क्ए विरोधों के होते हुए भी काशी एवं हरिद्वार में सन्तों की प्रतिक्रिया सनातन धारा को चोट तो पहुंचाती ही है मध्यकालीन चर्च के व्यवहार तथा तालिबानी कार्य पद्धति की स्मृति करा देती है। चाहे जिस रुप में इसको लिया जाय भारत भूमि में स्वीकृत एवं प्रचलित सनातन पुरातन तथा सनातन वाद पथ के अनुकुल नहीं है। आखिर योगदर्शन के प्रतिपादक पतंजलि का अनुयायी ब्रह्मसत्यं जगतमिथ्या के सिद्धान्त के साथ सहमत हो इसके लिये उसे बाध्य करना उचित है क्या? असहमति का प्रकटीकरण अपराध है क्या?

असहमति या विरोध का होना स्वाभाविक है उसको दूर करने का प्रयास उचित तथा श्लाघ्य है। किन्तु इसके लिये दर्शन के क्षेत्र में शास्त्रार्थ की स्वीकृत विधि का ही उपयोग होना चाहिये। बल से,  दबाव से अथवा प्रभाव से सहमति बनाने की   विधि सनातन परम्परा के अनुकुल नहीं है। असहमति को खण्डित करने के लिये शास्त्रार्थ ही शिष्ट मर्यादित विधि है। ध्यान रहे इसस का भी प्रयोग दर्शन के ही क्षेत्र में संभव है। शास्त्रार्थ सिद्ध तथ्य होने से ही श्रद्धा उत्पन नहीं होती है वह तो तप के अधीन है 
 यदाचरति श्रेष्ठः तदेवेतरो जनाः ।
स यत्प्रमाणं कुरूते लोकस्तदनुवर्तत।

4 टिप्‍पणियां:

Ishwar ने कहा…

आप हिन्दी में लिखते हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं,

उम्मीद ने कहा…

आप की रचना प्रशंसा के योग्य है . आशा है आप अपने विचारो से हिंदी जगत को बहुत आगे ले जायंगे
लिखते रहिये
चिटठा जगत मे आप का स्वागत है
गार्गी

Nanda Ghosh ने कहा…

bahut achha likhte hai aap Rajaneesh. Par ekbat main aapse jaroor kehna chahungi.....jo shashwat hain wahi satya hai. satya ka pariwartan nahin ho sakta. Satya atal evam adig hain.
to bhay nahin hona chahiye

meri shubhkamnayein tumhare sath hain rajneesh

Unknown ने कहा…

jai shri ram .

Aap apne kakshy me safal ho........