शनिवार, 7 मार्च 2015

नववर्ष संवत्सर जलने के पन्द्रह दिन बाद क्यों ?

ववर्ष संवत्सर जलने के पन्द्रह दिन बाद क्यों ?


यह हम सब जानते है और सब मानते भी है। पर जब माह का प्रारंभ कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से होता है तो वर्षारंभ चैत्र मास के शुक्लपक्ष की प्रतिप्रदा से क्यों? इस प्रश्न पर गहन गंभीर विवेचन तो खगोलशास्त्र और सिद्धान्त ज्योतिष के विद्वान करेंगें किन्तु साधारण समझ हर भारतीय को होनी चाहिये। इसी को उद्दिष्ट कर मै कुछ विवेचन करना चाहता हूँ।  प्रश्न के दो भाग है। पहला यह कि वर्ष का आरंभ चैत्र से ही होना क्यों स्वीकार किया गया  है। दूसर यह कि चैत्र कृष्ण  प्रतिपद से वर्ष की शुरुआत न मान कर चैत्र शुक्ल प्रतिपद से क्यों माना जाता है। प्रथम प्रश्न साक्षात् विचार का नहीं है अतः उस पर कभी और चर्चा होगी। यहां मासारंभ का विचार ही अपेक्षित है। इस पर भी यह ध्यान रहे कि जो आर्यावर्त की काल गणना है उसी में मासारंभ शुक्लपक्ष से करने का विचार है। पूर्णिमान्त मास का सिद्धान्त उदीच्य( उत्तरी) वैशिष्ट्य है। माह अपने मूल रुप मे एक अमा से दुसरी अमा तक अर्थात् अमावस्या से अमावस्या तक होता है । इस सिद्धान्त को भी स्वीकार करने पर मासारम्भ शुक्ल पक्ष की प्रतिपद से होता है। हां सामान्य लोकव्यवहार में पूर्णिमान्त माह प्रचलित है क्योकि महीनो के नाम पूर्णिमा पर अधारित हैं। अतः जिस नक्षत्र में पूर्णिमा तिथि होती है उसी नक्षत्र पर उस महीने का नाम रखा गया है। चित्रा नक्षत्र की पूर्णिमा वाला मास, चैत्र तो विशाखा नक्षत्र की पूर्णिमा वाला मास वैशाख।

इस  विवेचन को समझने के लिये जरुरी है कि भारतीय काल गणना के मूल सिद्धान्त को समझा जाय यह शुद्ध गणितीय काल गणना नही है। अपितु दृक् गणित है अर्थात इस खगोल में जो दृश्यमान है उसका गणितीय विवेचन भारतीय काल गणना है। फलतः तीन प्रकर के संभव काल सिद्धान्तो का समन्वय इस विधि में प्राप्त होता है। पंचांग नाम पाँच प्रमुख भागों से बने होने के कारण है,  गणना के आधार पर हिंदू पंचांग की तीन धाराएँ हैं- पहली चंद्र आधारित, दूसरी नक्षत्र आधारित और तीसरी सूर्य आधारित कैलेंडर पद्धति। भिन्न-भिन्न रूप में यह पूरे भारत में माना जाता है। एक साल में 12 महीने होते हैं। प्रत्येक महीने में 15 दिन के दो पक्ष होते हैं- शुक्ल और कृष्ण। प्रत्येक साल में दो अयन होते हैं। इन दो अयनों की राशियों में 27 नक्षत्र भ्रमण करते रहते हैं। यह इस का समन्वयात्मक आयाम है।
चान्द्रमास और सौरमास मे जो अन्तर है वह तीसरे वर्ष जा कर बराबर होता है। किन्तु प्रत्येक वर्ष ग्यारह दिन से अधिक के अन्तर को समायोजित करने के लिये नववर्ष की शुरुआत चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से मानी जाती है। इस मान्यता से अमान्त मास के सिद्धान्त का भी प्रतिकात्मक रक्षण है, तो बासन्तिक नवरात्र के प्रथम दिन से वर्षारंभ का सुअवसर भी प्राप्त हो जाता है। चन्द्रमा एवं सूर्य के बीच के गति मे पन्द्रह अंश के खगोलीय अन्तर को भी समंजन मिल जाता है। इस कारण से चैत्र शुक्ल प्रतिपद से वर्षारंभ को मानना वैज्ञानिक तथा युक्तियुक्त तो है ही, हमारी पौराणिक एवम् ऐतिहासिक मान्यता  को भी संबल देता है।


यद्यपि कि यह सवाल नव वर्ष से संबन्धित नहीं है किन्तु हर भारतीय के मन में स्थायी रूप से घर किये हुये है कि तिथियों की हानि वृद्धि  के पीछे का कारण क्या है? जब खगोल ज्योतिष की इतनी चर्चा हो गई है तो इस प्रश्न पर भी विचार कर लियाजाना उचित होगा| पृथ्वी के सूर्य की परिक्रमा का मार्ग नाक्षत्रिक वृत्त है जिसे क्रान्ति वृत्त कहा जाता है सभी ग्रह सूर्य का चक्कर अधिकतम ७ अंश का कोण बनाते हुये लगाते हैं| चन्द्रमा जो पृथ्वी का चक्कर लगाता है वह अपने परिक्रमा मण्डल मे पृथ्वी से ४.५६ से ५.२० अंश उपर नीचे होता है इसके कारण पृथ्वी की परिक्रमा में उसकी गति समान नही प्रतीयमान होती है यह असमान गति पृथ्वी से प्रेक्षण पर ही अनुभूत होती है इसलिये तिथियो मे घट बढ होती है| यह  नक्षत्र मण्डल के २७ भागो में चान्द्र मास से समान तो होता है किन्तु सौर दिनमान की तुलना मे अन्तर दिखता है| क्योंकि सूर्य और चन्द्रमा के अन्तरांशों के आधार पर तिथि मान निकाला जाता है| इसका चन्द्रमा के २७ नक्षत्रों मे भ्रमण के साथ समंजन करने में यह हानि वृद्धि प्रतीत होती है यह आनुभविक है वास्तविक नहीं|   

1 टिप्पणी:

गोपाल कृष्ण शुक्ल ने कहा…

आचार्य रजनीश शुक्ल जी के इस गूढ़ विषय और जटिल प्रश्न का जनसामान्य की भाषा मे सरलता से विवेचन स्वागतयोग्य है।