दैनिक जीवन में वास्तुशास्त्र
डा. रजनीश कुमार शुक्ल
वास्तु शास्त्र गृह निर्माण की कला को कहते हैं, यह एक शास्त्र है और ऐसा शास्त्र है जो हमें, गृह में रहने के लिए उपयुक्त उर्जा ,सकारात्मक वायु , स्वक्ष जल, आकाश , और वो भूमि खंड जहा हमें निवास करना चाहिए का ज्ञान प्रदान करता है । इन पांचो तत्त्वों का जिस भवन में परिपूर्ण समावेश हो वह स्थान वास्तु के दृष्टि से अति उत्तम माना जाता है । वास्तु एक ऐसी कला है जो भवन निर्माण के लिए उपयोग की जाती है । अगर वास्तु का इतिहास अगर देखा जाए तो त्रेता युग में लंका हो या द्वापर में इन्द्रप्रस्थ या हस्तिनापुर या खुद भगवान् कृष्ण के लिए द्वारका का निर्माण हो वास्तुविदों द्वारा ही किया गया था। उसके बाद की वास्तु कला का नमूना देखे तो चाहे मुग़ल हो या बौद्ध स्थापत्य हो या राजस्थान के भवन या रोमन कला अर्थात अंग्रेजो की भवन कला सर्वत्र वास्तु का महत्त्व देखा जा सकता है।
पर सामान्य मनुष्य वास्तु के हिसाब से ही भवन क्यों बनाये। मनुष्य के जीवन पर इसका आखिर क्या प्रभाव पड़ता है ? इस प्रश्न का विवेचन आवश्यक है यद्यपि इस का उत्तर अत्यन्त सरल तथा सबको ज्ञात है, मानव शरीर पांच तत्वों से पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, अंतरिक्ष से निर्मित है और प्रकृति भी इन पांच तत्वों का समग्र योग है।
एक मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिए वायु, जल, सूर्य की रौशनी, खुला आसमान, अग्नि और भूमि का एक टुकडा चाहिए।वास्तुशास्त्र भवन निर्माण में प्रकृति के पांच प्राकृतिक बलों या तत्वों के साथ हमारे शरीर के पांच तत्वों के तालमेल का ज्ञान है।
वास्तु से हमें दिशा का ज्ञान प्रदान करता है अर्थात यह कि कौन की दिशा हमारे लिए कितनी अच्छी है और क्यों है ? हम सब जानते हैं कि किसी भी मनुष्य के जीवन पर सूर्य के प्रकाश का प्रभाव बहुत महत्वपूर्ण होता है लेकिन सूर्य की रोशनी किस दिशा में हमें क्या प्रभाव देगी ? अगर उसके ऋणात्मक प्रभाव प्रभाव हैं तो वे कैसे समाप्त हो और ऊर्जा का सकारात्मक प्रभाव कैसे प्राप्त किया जाए आदि प्रश्न अत्यन्त महत्त्व के हैं। सूर्य पूर्व से उदय होते हैं और पूर्व से दक्षिण की यात्रा करते हुए पश्चिम में जा कर उनका प्रकाश अस्त होता है तथा पश्चिम से उत्तर होते हुए पूर्व में फिर उदयमान होता है। सूर्य उत्तरायण से दक्षिणायन और दक्षिणायन से उत्तरायण की यात्रा करते हुए वर्ष भर में १२ राशियों की परिक्रमा करते है सूर्य के इस यात्रा के प्रभाव से ही ऋतुओ का आगमन होता है जिसका प्रभाव मनुष्य पर प्रत्यक्षतः पड़ता है
दिशा के हिसाब से पूरब व पश्चिम की दिशा को अत्ति महत्वपूर्ण माना जाता है । उत्तर और दक्षिण की दिशा का महत्व धरती के उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुवो के प्रभाव से सम्बन्धित है ,उत्तरी ध्रुव से चुम्बकीय किरणे दक्षिण ध्रुव की और जाती है और इन किरणों का प्रभाव हम पर पड़ता है तथा ये सूर्य के प्रभाव के भांति ही लाभप्रद होती हैं । वास्तु शास्त्र इस उर्जा से लाभ उठाने के लिए उचित व्यवस्था वाला भवन निर्माण का निर्देश देता है ।
वास्तु में सबसे महत्वपूर्ण है दिशा जैसे : पूर्व(सूर्य), पश्चिम(शनि), उत्तर (बुध) ,दक्षिण (मंगल), दक्षिण पूर्व या आग्नेय कोण (शुक्र ) ,दक्षिण पश्चिम या नैऋत्य कोण ( राहू), उत्तर पश्चिम या वायव्य कोण ( चंद्रमा ), उत्तर पूर्व अर्थात ईशान कोण ( गुरु )। इन आठ दिशाओं का वास्तु में अत्यधिक महत्व है। दिशा चयन तथा चयनित दिशा के अनुसार भवन निर्माण को वास्तु कला माना जाता है। दिशा के स्वामी अपने गुण स्वभाव के अनुसार ही प्रभाव डालते है और स्वस्थ जीवन, सुखमय जीवन के लिए इन रहस्य को समझना बहुत जरूरी है । तथा यह जानकारी हमें वास्तु शास्त्र से ही प्राप्त हो सकता है
वास्तु शास्त्र की रचना मानव जीवन को सुखमय बनाने के उद्देश्य से की गयी है। सुखमय जीवन की सबसे बड़ी धुरी है अर्थ। अर्थागम के लिए ही मनुष्य व्यवसाय करता है। किसी भी व्यवसाय के मूल में मानव का अर्थ चिन्तन ही होता है। आज व्यवसाय प्रबन्धक भी मानव संसाधन के महत्व को समझने लगे हैं। समुचित तथा योग्य टीम सही वातावरण तथा उचित साधनों के माध्यम से किसी भी कार्य को सही तरीके से अंजाम देने में सक्षम होती है। समझदार व्यवसायी हमेशा सही टीम की खोज में रहता है। किंतु टीम को आकर्षित करने के लिए एक अच्छा वास्तु वातावरण सदैव उपयोगी रहता है। इस कार्य के लिए सही वास्तु वातावरण वह स्थान दे सकता है जहां की कास्मिक, ग्लोबल तथा टेल्युरिक तीनों प्रकार की ऊर्जायें अच्छी हों, संतुलित हों। कास्मिक ऊर्जा जहां सही निर्णय लेने की क्षमता देती है जो कि सही चुनाव करने के लिये आवश्यक है। वहीं ग्लोबल ऊर्जा में विशिष्ट आकर्षण शक्ति होती है। यह आकर्षण शक्ति अधिक से अधिक लोंगो को स्थान विशेष की ओर आकर्षित करती है। यह ऊर्जा जहां होती है वहां का माहौल खुशहाल और भरा-पूरा रहता है, लोंगो का उत्साह बढ़ता है। भवन की ऊर्जाओं को संतुलित करने के लिए कुछ अन्य वैज्ञानिक वास्तु के नियम भी आवश्यक है, जैसे कार्य करने वाले के बैठने की दिशा तथा स्थान विशेष में प्रयोग किये गये रंग। सामान्यतः पूर्व दिशा की ओर मुंह करके बैठना विद्याध्यन, रिसर्च कार्य तथा ईमानदारी पूर्वक किये जाने वाले कार्यों के लिये उपयोगी है। उत्तर दिशा की ओर मुंह करके बैठना मैनिपुलेशन के कार्यों के लिये उपयोगी होता है। भवन अथवा कार्यस्थल की आंतरिक सज्जा इस प्रकार होनी चाहिये कि उत्तर तथा पूर्व का हिस्सा छत का हो इसके अतिरिक्त ईशान्य की तरफ स्थान का खुला होना भी सहयोगी होता है। दक्षिण पश्चिम का हिस्सा ऊँचा तथा भारी होना आवश्यक है।
ये सामान्य नियम उपयोगी तो हैं किंतु आंतरिक साज-सज्जा में प्रयोग की गयी वस्तुओं की भी अपनी ऊर्जा का भी सकारात्मक होना अति आवश्यक है, यह हमेशा याद रखना चाहिए कि नकारात्मक ऊर्जा वाली वस्तुयें भवन का पूरा आंतरिक वातावरण नष्ट कर सकती हैं।
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