सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

भारतीयकरण की चुनौतियां और राष्ट्रीय विमर्श का आह्वान

भारत की स्वतन्त्रता और स्वातन्त्रयोत्तर भारत के निर्माण पर कांग्रेस की वैचारिकी का गहन प्रभाव है| महात्मा गान्धी के लाख प्रयास के बावजूद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का राष्ट्रीयकरण न हो सका | शायद यही कारण रहा होगा कि महात्मा गान्धी ने  कांग्रेस के विसर्जन का प्रस्ताव किया था, क्योकि भारत की आजादी निश्चित रूप से गान्धी के हिन्द स्वराज के सपनो की आजादी नहीं थी| जबकि गान्धी के हिन्द स्वराज उनके चिन्तन की  वह पक्की किताब थी जिसके एक शब्द मे वह परिवर्तन को तैयार न थे | दूसरी ओर कांग्रेस नेतृत्व, विशेषतः जवाहरलाल नेहरू साम्यवादी भौतिकतावाद और पश्चिम की  औद्योगिक क्रान्ति के इस प्रकार से मुरीद थे कि उन्हे भारतीयता के प्रश्न निहायत बचकाने और प्रदर्शन प्रतिगामी लगते थे | उनको यह सब कुछ  कांग्रेस के ऐतिहासिक दायाद के रूप में सहज ही प्राप्त था| फलतः स्वातन्त्र्योत्तर भारत में विकसित राष्ट्र जीवन पर  पश्चिमी चिन्तन एवं जीवन प्रणाली का ऐसा घनघोर प्रभाव दिखता है कि यह एक तरह से यूरण्डपन्थी दादागिरी (Eurocentric suppression) ही सर्वत्र  प्रभावी है| इसका परिणाम यह हुआ कि पश्चिम विशेषतः  यूरोप के सभ्यता मूलक विमर्श से अलग और भिन्न  चिन्तन और जीवन  दर्शन को जो अपने मूल स्वभाव में देशज एवं  अत्यन्त मौलिक था,  पोगापन्थी, साम्प्रदायिक, प्रतिगामी , फासिस्ट और दकियानुस आदि विविध प्रकार के अपशब्दो एवं  गालियों से नवाज कर,  भारत के मूल को समाज की मूलधारा से  अलग रखने का बहुशः यत्न भी भारत की राजनैतिक आजादी के दिनो से ही दिखाई देता है |यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि स्वातन्त्रयोत्तर भारत के सभी क्षेत्रों में चाहे वह राजनैतिक क्षेत्र हो या प्रशासनिक, शिक्षा हो या जन संचार या मीडिया चहुंओर निकष निदर्श और प्रतिमानो का का ही प्रयोग दिखता  हैं जो अपने मूल में या तो रोमन कैथोलिक ईसाई मत या उसके विरोध में जन्में प्रोटेस्टेन्ट मत का  प्रतिफलन है | यूरोपीय अवधारणाओ के प्रभुत्त्व का परिणाम यह हुआ कि भारत का समस्त सामाजिक चिन्तन, उसका गौरवशाली इतिहास मूल्याधिष्ठित परम्परा जिसमें साहित्य, कला, नीति के साथ साथ विज्ञान, तकनीक के भारतीय पर्याय सभी कुछ समाविष्ट हैं, का मूल्यांकन अत्यन्त अनादर और निराशा के साथ हुआ | वस्तुतः समस्त भारतीय ज्ञान विज्ञान यूरो केन्द्रितता में सांस्कृतिक पिछडेपन(Cultural lag) का  प्रदर्शन मात्र समझ लिया गया | वस्तुतः यूरो संकेन्द्रितता सामी विश्वदृष्टि  का  ही प्रतिफलन है| यह विश्व दृष्टि मिथ्या ही सही,  शताब्दियों तक विश्व सभ्यता के निर्माता के रूप में स्थापित रही है| किन्तु अपने आन्तरिक संघर्ष के कारण  इस सभ्यता को  सभ्यताओं के  संघर्ष की अपरिहार्यता का प्रतिपादन कराना पडा | ध्यान देने की बात यह है कि मूल ईसाई विचार करूणा प्रेम और सेवा का प्रतिपादक रहा है| बाद के दिनों में विकसित  स्वतन्त्रता समानता और बन्धुत्व का लोकतान्त्रिक आदर्श भी इसी ईसाई मूल का प्रतिफल था| बीसवीं शताब्दी  के अन्त में इस्लामी राष्ट्रो के आर्थिक अभ्युन्नति  तथा साम्यवाद के तिरोभाव के बाद इस यूरोपीय विचार को पहली बार  अपनी वैचारिकी को ऐसे सिद्धान्त का सामना करना पडा जो मूल में सामी होते हुये भी ईसाई सभ्यता के छद्म करूणामूलक सेवाधर्मी  रूप का प्रखर प्रतिरोधी और  ईसाई एकाधिकारिता  प्रबल विरोधी था | छद्म दया व करूणा के पारंपरिक हथियारों से उस पर विजय संभव न थी | आधुनिक शिक्षा के द्वारा संस्कार परिवर्तन को भी इसके मुकाबिल खडा नहीं किया जा सकता था| क्योंकि शिक्षा और उसके माध्यम से अभ्युन्नति  को इस जडवादी सभ्यता ने अपना जीवन लक्ष्य समझा ही नहीं था|  साथ सभ्यताओं के संघर्ष  का कथित  पश्चिमी नवाचार  इसके मूल में ही था | इसलिये सभ्यताओं यह संघर्ष मात्र वैचारिक अथवा आस्था संस्थान को तोडने वाला  ही न होकर इससे बडे और भंयकर लक्ष्य  वाला है | इसका  लक्ष्य है  वास्तविक युद्ध के द्वारा अपने विरोधी आस्था संस्थान और विचार का समूलोच्छेद| अतः इस के प्रतिकार के लिये व्यापक विमर्श की आवश्यकता है | च्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जो इस यूरो ईसाई सभ्यता से आक्रान्त न हो| भारत के चित्त मानस और काल पर इस विजातीय वैचारिकी का प्रभाव इतना तीक्ष्ण और सघन है कि इ किसी एक क्षेत्र विशेष में इसके प्रतिकार का प्रयास इस को निष्प्रभावी नहीं कर सकता है अपितु इस प्रकार के एकांगी और एकदेशीय प्रयास इस विषाणु को नया रूप लेकर अन्य क्षेत्र मे प्रसारित होने मे उपादेय हो सकते हैं| 

शनिवार, 7 मार्च 2015

नववर्ष संवत्सर जलने के पन्द्रह दिन बाद क्यों ?

ववर्ष संवत्सर जलने के पन्द्रह दिन बाद क्यों ?


यह हम सब जानते है और सब मानते भी है। पर जब माह का प्रारंभ कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से होता है तो वर्षारंभ चैत्र मास के शुक्लपक्ष की प्रतिप्रदा से क्यों? इस प्रश्न पर गहन गंभीर विवेचन तो खगोलशास्त्र और सिद्धान्त ज्योतिष के विद्वान करेंगें किन्तु साधारण समझ हर भारतीय को होनी चाहिये। इसी को उद्दिष्ट कर मै कुछ विवेचन करना चाहता हूँ।  प्रश्न के दो भाग है। पहला यह कि वर्ष का आरंभ चैत्र से ही होना क्यों स्वीकार किया गया  है। दूसर यह कि चैत्र कृष्ण  प्रतिपद से वर्ष की शुरुआत न मान कर चैत्र शुक्ल प्रतिपद से क्यों माना जाता है। प्रथम प्रश्न साक्षात् विचार का नहीं है अतः उस पर कभी और चर्चा होगी। यहां मासारंभ का विचार ही अपेक्षित है। इस पर भी यह ध्यान रहे कि जो आर्यावर्त की काल गणना है उसी में मासारंभ शुक्लपक्ष से करने का विचार है। पूर्णिमान्त मास का सिद्धान्त उदीच्य( उत्तरी) वैशिष्ट्य है। माह अपने मूल रुप मे एक अमा से दुसरी अमा तक अर्थात् अमावस्या से अमावस्या तक होता है । इस सिद्धान्त को भी स्वीकार करने पर मासारम्भ शुक्ल पक्ष की प्रतिपद से होता है। हां सामान्य लोकव्यवहार में पूर्णिमान्त माह प्रचलित है क्योकि महीनो के नाम पूर्णिमा पर अधारित हैं। अतः जिस नक्षत्र में पूर्णिमा तिथि होती है उसी नक्षत्र पर उस महीने का नाम रखा गया है। चित्रा नक्षत्र की पूर्णिमा वाला मास, चैत्र तो विशाखा नक्षत्र की पूर्णिमा वाला मास वैशाख।

इस  विवेचन को समझने के लिये जरुरी है कि भारतीय काल गणना के मूल सिद्धान्त को समझा जाय यह शुद्ध गणितीय काल गणना नही है। अपितु दृक् गणित है अर्थात इस खगोल में जो दृश्यमान है उसका गणितीय विवेचन भारतीय काल गणना है। फलतः तीन प्रकर के संभव काल सिद्धान्तो का समन्वय इस विधि में प्राप्त होता है। पंचांग नाम पाँच प्रमुख भागों से बने होने के कारण है,  गणना के आधार पर हिंदू पंचांग की तीन धाराएँ हैं- पहली चंद्र आधारित, दूसरी नक्षत्र आधारित और तीसरी सूर्य आधारित कैलेंडर पद्धति। भिन्न-भिन्न रूप में यह पूरे भारत में माना जाता है। एक साल में 12 महीने होते हैं। प्रत्येक महीने में 15 दिन के दो पक्ष होते हैं- शुक्ल और कृष्ण। प्रत्येक साल में दो अयन होते हैं। इन दो अयनों की राशियों में 27 नक्षत्र भ्रमण करते रहते हैं। यह इस का समन्वयात्मक आयाम है।
चान्द्रमास और सौरमास मे जो अन्तर है वह तीसरे वर्ष जा कर बराबर होता है। किन्तु प्रत्येक वर्ष ग्यारह दिन से अधिक के अन्तर को समायोजित करने के लिये नववर्ष की शुरुआत चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से मानी जाती है। इस मान्यता से अमान्त मास के सिद्धान्त का भी प्रतिकात्मक रक्षण है, तो बासन्तिक नवरात्र के प्रथम दिन से वर्षारंभ का सुअवसर भी प्राप्त हो जाता है। चन्द्रमा एवं सूर्य के बीच के गति मे पन्द्रह अंश के खगोलीय अन्तर को भी समंजन मिल जाता है। इस कारण से चैत्र शुक्ल प्रतिपद से वर्षारंभ को मानना वैज्ञानिक तथा युक्तियुक्त तो है ही, हमारी पौराणिक एवम् ऐतिहासिक मान्यता  को भी संबल देता है।


यद्यपि कि यह सवाल नव वर्ष से संबन्धित नहीं है किन्तु हर भारतीय के मन में स्थायी रूप से घर किये हुये है कि तिथियों की हानि वृद्धि  के पीछे का कारण क्या है? जब खगोल ज्योतिष की इतनी चर्चा हो गई है तो इस प्रश्न पर भी विचार कर लियाजाना उचित होगा| पृथ्वी के सूर्य की परिक्रमा का मार्ग नाक्षत्रिक वृत्त है जिसे क्रान्ति वृत्त कहा जाता है सभी ग्रह सूर्य का चक्कर अधिकतम ७ अंश का कोण बनाते हुये लगाते हैं| चन्द्रमा जो पृथ्वी का चक्कर लगाता है वह अपने परिक्रमा मण्डल मे पृथ्वी से ४.५६ से ५.२० अंश उपर नीचे होता है इसके कारण पृथ्वी की परिक्रमा में उसकी गति समान नही प्रतीयमान होती है यह असमान गति पृथ्वी से प्रेक्षण पर ही अनुभूत होती है इसलिये तिथियो मे घट बढ होती है| यह  नक्षत्र मण्डल के २७ भागो में चान्द्र मास से समान तो होता है किन्तु सौर दिनमान की तुलना मे अन्तर दिखता है| क्योंकि सूर्य और चन्द्रमा के अन्तरांशों के आधार पर तिथि मान निकाला जाता है| इसका चन्द्रमा के २७ नक्षत्रों मे भ्रमण के साथ समंजन करने में यह हानि वृद्धि प्रतीत होती है यह आनुभविक है वास्तविक नहीं|   

रविवार, 1 मार्च 2015

गौतम बुद्ध का परिष्कार -- करुणामूलक सामाजिक व्यवस्था
भारत के आधुनिक इतिहासकार,  विशेषतः आधुनिक इतिहासकारो ने यह माना है कि बुद्ध का पथ वैदिक व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह था क्योंकि बुद्ध ने वेद प्रतिपादित ईश्वरवाद, आत्मवाद और वर्ण व्यवस्था के साथ साथ यज्ञ का भी प्रतिरोध किया है ! इसके लिये आधुनिक इतिहास के यूरण्डपन्थी लेखकों के द्वारा यह प्रतिपादित किया गया कि चार वर्णों की अवधारणा दैवी सिद्धान्त है और इसकी दिव्यता को अस्वीकार कर के बुद्ध ने वेदो के आत्यन्तिक प्रामाण्य को अस्वीकार करते हुये समस्त वैदिक परंपरा को अस्वीकार कर दिया | परन्तु यह सत्य का केवल एक भाग ही देखकर किया गया अभिकथन है| संपूर्ण सत्य यह है कि बुद्ध ने सनातन धर्म मे काल प्रवाह से आयी विकृतियों का विरोध करते हुये धर्म के मूल स्वरुप को स्थापित करने का यत्न किया | उन्होने किसी नये धर्म का प्रचार करने की अपेक्षा सनातन धर्म को ही पुनर्व्याख्यायित करने का कार्य किया है, सत्य अहिंसा करुणा और मैत्री  जैसे मूल्यो को मानव मात्र के आचरण का आधार रूप धर्म स्थापित करना ही भगवान के धर्मोपदेश का मूल उत्स है | यह प्राणी मात्र की तात्विक एकरुपता के प्रतिपादन के वैदिक पथ से अलग न हो कर काल के प्रवाह के साथ आचरण में आयी विकृतियों का प्रतिरोध है|
वेदप्रतिपादित  पथ चार वर्ण और चार आश्रम पर आधारित है | बुद्ध के काल तक यह  मान्यता बद्धमूळ हो गयी थी कि वर्ण ईश्वर कृत है और किसी भी वर्ण मे व्यक्ति का जन्म उसके पूर्वजन्म के कर्मों के आधार ही वर्ण प्राप्त होता है यह वर्ण अपरिवर्तनशील है |  अर्थात् जन्म के आधार पर ही सामाजिक श्रेष्ठता का निर्धारण होता है | व्यक्ति  के सामाजिक दाय और  अधिकारों का निर्धारण वर्ण के आधार पर होने के कारण यह  शक्ति के दैवी पृथक्कीकरण की व्यवस्था है | इस मान्यता को पूर्वपक्ष के रूप में प्रतिपादित करते हुये आधुनिक इतिहासकारो यह प्रस्तुत किया गया है कि बुद्ध का रास्ता वर्ण व्यवस्था, आत्मवाद तथा कर्मकाण्ड मूलक वैदिक धर्म का प्रतिरोध है | इतिहास की यह  मान्यता नित्यतावाद और अनित्यतावाद  के बीच किसी  संघर्ष को प्रतिपादित करते हुये अनित्यतावाद को नित्यतावाद की  समस्त व्यवस्था को उलटने के उपक्रम के रूप मे देखने के पूर्वाग्रह के कारण है | अर्थात् बुद्ध का पथ भारत के इतिहास का वह पक्ष है जिसमें पूर्वबर्ती समस्त व्यवस्था समूलोच्छेद किया गया है |  
परन्तु यह एकान्तिक प्रतिपादन है सत्य के एक ही आयाम को देखने का स्वाभाविक परिणाम है | यह सत्य है कि भगवान बुद्ध ने अपने काल की कुछ विकृतियों को दूर करने का प्रयास किया किन्तु यह भी सत्य है कि भगवान बुद्ध ने भारत की मूल सामाजिक व्यवस्था को जड से समाप्त करने का अभियान न चलाकर परंपरागत समाज में परिष्कार के साथ विद्वेशपूर्ण स्थितियों के परिषकार का ही प्रयास किया था |
वस्तुतः बुद्ध का मत समाज को उच्चत्तर मूल्यों पर ले जाने का वह प्रयास है जिसमें नैतिकता और करुणा पर बल दिया गया है| प्रत्येक व्यक्ति अपने लिये कठोर रुप से नीति का पालन करने वाला तथा अन्यों के प्रति करूण हो | सही शब्दो में कहा जाय तो बुद्ध ने पारम्परिक रूप से दार्शनिक चिन्तन के विषय तत्त्वमीमांसीय प्रश्नों की उपेक्षा करते हुये आचरण और नैतिकता पर बल देने वाले पथ को प्रतिपादित किया है यह वैदिक परंपरा का विरोध न हो कर उसका पल्लवन है|
बुद्ध का उद्देश्य जगत के कर्त्ता की खोज नहीं है | जबकि वेद, ‘कस्मै देवा हविषा विधेम’ के उद्द्घोष के साथ ही जगत के निर्माता को खोजते हैं | अर्थात् वेद माता तथा बौद्ध पक्ष दोनो ही दो अलग अलग किन्तु परस्पर पूरक पथ का प्रतिपादन करते हैं | बुद्ध का रास्ता तत्त्वमीमांसीय प्रश्नों ( Metaphysical Questions) को  सुलझाने की अपेक्षा मानव जीवन और उसकी व्यष्टि समष्टि समस्याओं को सुलझाने  का प्रयत्न है | बुद्ध के चिन्तन का मूल प्रश्न है कि क्या कुशल एवं  श्रेष्ठ है ? सम्यक्त्त्व क्या है जिसके आधार पर  आचार एवं विचारो की श्रेष्ठता को प्रमाणित किया जाय | पाप और पुण्य क्या है? उसके आकलन में व्यक्ति और उसके संबन्धों का क्या महत्त्व है? इस प्रकार के नीतिगत प्रश्नो  के प्रसंग में व्यक्ति और समाज के संबन्धों की व्याख्या करना बौद्ध चिन्तन की विशेषता है | बुद्ध की विशेषता है कि सम्यक् संबुद्ध अर्थात बोधिसंपन्न शास्ता होने के बाद भी वे प्राणीमात्र के दुख शोक और परिदेव को दूर करने के लिये बार बार जीवन धारण करने का उपदेश देते हैं | बोधीसत्त्व के रुप मे सभी के दुःख विमोचन के लिये समस्त कलि कलुष को अपने उपर आने का आह्वान करते हैं| परिणामतः बौद्ध परम्परा में जो विचार विकसित हुआ वह सबको सभी प्रकार के दुःखों से मुक्त करने के मानवी प्रयत्न का विचार है |
समरस समाज के निर्माण मे बुद्ध की देशना इसलिये महत्त्वपूर्ण है कि समरसता एक भाव है यह समता के समान वाह्य भौतिक वृत्ति नहीं है| इसलिये मनुष्य के चित्त को कुशल बनाना  करना, उसे अहिंसा करुणा आदि गुणों से आप्लावित करना ही बौद्ध शासन का प्रतिपाद्य रहा है|  बुद्ध् परम्परा में ब्रह्मविहार ही एक मात्र आचरन का निकष है यह प्रणाली समरसता का प्रतिपादक है| सभी मनुष्यों मे सामरस्य का उदभावक है |
बुद्ध भारत के इतिहास के प्रथम सामाजिक परिष्कारक हैं जिन्होने कर्ममूलक यज्ञ की जड हो रही वैयक्तिक मुक्ति और सामाजिक पृथक्कीकरण की प्रक्रिया को रोक कर समाज के प्रति उत्तरदायी जीवन प्रणाली के निर्माण मे भूमिका निभायी और मोक्ष जैसे पारमार्थिक पद को भी ऐहिक मूल्यों के आधार पर नियोजित कर मानव जीवन को मूल्यवान बनाया | मैत्री, मुदिता करुणा और उपेक्षा चार ऐसे उदात्त मूल्य है जिनसे संपृक्त चितत के साथ विहार करना ब्रह्म विहार माना गया है यह विहार असीम है-----
मैत्री— सभी प्राणी  सुखी हों, यह मैत्री संपृक्त चित्त विहार है |
करुणा—सभी प्राणी दुःख विरहित हों यह करुणा सहगत चित्त विहार है |
मुदिता— उत्तरोत्तर विकासोन्मुख सुख से संपन्न प्राणियों के प्रति आनन्द प्रतिलाभ मुदिता संप्रयुक्त चित्त विहार है |
उपेक्षा – अबोधजन की अबोधता के प्रति उपेक्षा युक्त उनके सम्यक् अवबोध की उदात्त कामनापूर्वक दिशादर्शन उपेक्षा संप्रयुक्ता चित्त है|
सामान्यतः आधुनिक विचारक यह समझते हैं कि बौद्ध मत का रास्ता का वेदानुयायी मत से नितान्त अलग है क्योंकि आत्मवाद के स्थान पर अनात्मवाद, हिंसामूलक बली के विरुद्ध अहिंसा,वर्णव्यवस्था के स्थान पर सर्वप्राणी समता, ईश्वरवाद के स्थान पर निरीश्वरवाद इत्यादि की नितान्त विरोधी विचारसरणि को देखकर इस प्रकार के निष्कर्ष निकालना आश्चर्यजनक नहीं लगता है किन्तु स्वयं बौद्ध चिन्तन में समता का उतना महत्त्व नही है जितना कि विषमताओं का निषेध कर विशेष व्यवहार एवं व्यवस्था के रूप में समरसता के भाव का प्रकटीकरण | संमता का तात्त्विक अस्त्तित्व बुद्ध को स्वीकार नहीं था क्योंकि ऐसी स्थिति में एक सामान्य प्रत्यय को स्वीकार ही करना पडता| इसके स्थान पर भावात्मक समरसता मैत्री करुणा, मुदिता और उपेक्षा की चित्त वृत्ति के  रुपमें परिकल्पित की गयी है | समता  से जोड़ने वाला तत्त्व मैत्री है|  समरसता को उत्पन्न करनेवाला तत्त्व मुदिता और उपेक्षा है| इन सब को परिव्यात करती हुई करुणा है| करुणा परदुखकातरता मात्र नहीं है अपितु सम्यक् ज्ञान का उदय है | समस्त संसार विषमतामूलक अनंत और असीम दुख का प्रवाह है | इस यथार्थ दुःख का अवबोध (दर्शन या अनुभव) ही करूणा का उदय है | किन्तु यहाँ अवबोध मात्र ही करूणा नहीं है | दुखों  के ज्ञानपूर्वक सभी को दुख मुक्त कराने का भाव  जब मन में जन्म लेता है तो ज्ञानी होने के अहं भाव के स्थान पर करूणा उत्पन्न होती है –
यदात्मनः परेषां च भयं दुःखं च न प्रियम्|
तदात्मनः को विशेषो यत्तं रक्षामि नेतरम्||
बौद्ध पथ की यह  करूणा दृष्टि  पुनर्जन्म और कर्मफलवाद की सनातन धर्म की अवधारणा का ही परिणाम है| जन्म मृत्यु के चक्र की अवधारणा बुद्ध को भी उतना ही मान्य है जितना वैदिक ऋषियों को| अनादि कालीन जन्म परम्परा में सभी प्राणी कभी न कभी, क्किसी न किसी जन्म में हमारे बन्धु रहे हैं| उनका भी अन्य प्राणियों से वैसा ही संबन्ध रहा है जैसा कि आज हमारा है| इसका अर्थ है कि मनुष्य के व्यक्तित्त्व निर्माण में समष्टि का योगदान है | संपूर्ण समाज और परिवेश का हम पर ऋण है, संपूर्ण समाज में परिव्याप्त जो दुःख है उस दुःख में भी  सबका सबका हाथ है | करुणा परदुःखकातरता मात्र नही है अपितु सामाजिक ऋण को समझते हुये दुःख के प्रवाह और और उसके स्रोत को का उच्छेद करने का भार स्वीकार करना ही करुणा है | एक व्यक्ति के व्यक्तित्त्व के निर्माण में संपूर्ण समाज का योगदान है तो समाज को दुःख मुक्त किये बिना स्वयं की मुक्ति अर्थात् एकाकी मुक्ति की साधना बुद्ध के अनुसार स्वार्थपूर्ण कामना है | अतः बुद्ध शासन मे करुणा स्व की मुक्ति न होकर समस्त समाज को दुःखों से मुक्त कराते हुये  सबको सुख उपलब्ध कराना ही है|
यह सुख केवल आत्यन्तिक आध्यात्मिक सुख को प्राप्त कराना नहीं है अपितु पारमार्थिक सुख के साथ सबको सबको लौकिक सुख भी प्राप्त हो इसका भी उपक्रम करना करुणा ही है | इसी को बोधिचर्यावतार में कहा गया है कि—
मुच्यमानेषु सत्त्वेषु ये ते प्रमोषसागराः|
तैरेव ननु पर्याप्तं  मोक्षेणारसिकेन् किम्||

करुणासंपन्न व्यक्ति पहले दुखी व्यक्ति और बाद में निरवैयक्तिक दुःख मात्र हो जाता है | करुणावान वही है जो जो व्यक्ति और समाज के हित में अपना समाजिकीकरण कर अपने व्यक्तित्त्व को तिरोहित कर देता है| करुणा संपन्न व्यक्ति बुद्ध का आदर्श है| ऐसा व्यक्ति, जिन जिन स्रोतो से दुःख जन्म लेता है उन स्रोतों को सुखाने के लिये सर्वदा तत्पर रहता है | सकृद्व्यवहार(सामाजिक व्यवहार) इस प्रकार के  अधिकतम दुःख का कारण है क्योकिं समाज मे अनेक ऐसे व्यवहार होते हैं जो विभेद और अलगाव उत्पन्न करते हैं इन दोषो को करने  दूर करने  का और समाज जीवन में बहुजन हित और बहुजन  सुख उत्पन्न करने वाली व्यवस्थाओं के निर्माण यत्न करना ही करुणा का सार्थक अर्थ है| यह तभी संभव है जब् बोधिकामी भिक्षु समरस हो समाज में परिव्रजा करे| विशिष्टता से अलगाव संभव है इसलिये विशिष्टता का परित्याग करते हुये  समाज के सभी स्तरों व वर्गों के बीच अपनत्व एवं करुणा के साथ मैत्री मुदिता और करुणा के जागरण का यत्न करते रहना बुद्ध की सम्यक् देशना है|

भारतीयता की पहचान

भारत का होना, भारतीय होना अपने आप में विशिष्ट अर्थ के साथ हो कर एक भूमि के साथ जुडना है यह प्रक्रिया, भारत का होने की प्रक्रिया, भारतीय होने की प्रक्रिया स्वयं में साधना है . इस के लिये भारत को
जानना पडेगा भारत को मानना पडेगा भारत का बनना पडॆगा और भारत को बनाना भी पडेगा.
इस प्रक्रिया में सर्वप्रथम भारत को जानना है, भारत को जानना ही भारतीयता की पहचान है।

भारतीयकरण की चुनौतियां और राष्ट्रीय विमर्श का आह्वान

भारतीयकरण की चुनौतियां और राष्ट्रीय विमर्श का आह्वान
रजनीश कुमार शुक्ल
भारत की स्वतन्त्रता और स्वातन्त्रयोत्तर भारत के निर्माण पर कांग्रेस की वैचारिकी का गहन प्रभाव है| महात्मा गान्धी के लाख प्रयास के बावजूद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का राष्ट्रीयकरण न हो सका | शायद यही कारण रहा होगा कि महात्मागान्धी ने  कांग्रेस के विसर्जन का प्रस्ताव किया था, क्योकि भारत की आजादी निश्चित रूप से गान्धी के हिन्द स्वराज के सपनो की आजादी नहीं थी| जबकि गान्धी के हिन्द स्वराज उनके चिन्तन की  वह पक्की किताब थी जिसके एक शब्द मे वह परिवर्तन को तैयार न थे | दूसरी ओर कांग्रेस नेतृत्व, विशेषतः जवाहरलाल नेहरू साम्यवादी भौतिकतावाद और पश्चिम की  औद्योगिक क्रान्ति के इस प्रकार से मुरीद थे कि उन्हे भारतीयता के प्रश्न निहायत बचकाने और प्रदर्शन प्रतिगामी लगते थे | उनको यह सब कुछ  कांग्रेस के ऐतिहासिक दायाद के रूप में सहज ही प्राप्त था| फलतः स्वातन्त्र्योत्तर भारत में विकसित राष्ट्र जीवन पर  पश्चिमी चिन्तन एवं जीवन प्रणाली का ऐसा घनघोर प्रभाव दिखता है कि यह एक तरह से यूरण्डपन्थी दादागिरी ( Eurocentric suppression) ही सर्वत्र  प्रभावी है| इसका परिणाम यह हुआ कि पश्चिम विशेषतः  यूरोप के सभ्यता मूलक विमर्श से अलग और भिन्न  चिन्तन और जीवन  दर्शन को जो अपने मूल स्वभाव में देशज एवं  अत्यन्त मौलिक था,  पोगापन्थी, साम्प्रदायिक, प्रतिगामी , फासिस्ट और दकियानुस आदि विविध प्रकार के अपशब्दो एवं  गालियों से नवाज कर,  भारत के मूल को समाज की मूलधारा से  अलग रखने का बहुशः यत्न भी भारत की राजनैतिक आजादी के दिनो से ही दिखाई देता है |
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि स्वातन्त्रयोत्तर भारत के सभी क्षेत्रों में चाहे वह राजनैतिक क्षेत्र हो या प्रशासनिक, शिक्षा हो या जन संचार या मीडिया चहुंओर निकष निदर्श और प्रतिमानो का का ही प्रयोग दिखता  हैं जो अपने मूल में या तो रोमन कैथोलिक ईसाई मत या उसके विरोध में जन्में प्रोटेस्टेन्ट मत का  प्रतिफलन है | यूरोपीय अवधारणाओ के प्रभुत्त्व का परिणाम यह हुआ कि भारत का समस्त सामाजिक चिन्तन, उसका गौरवशाली इतिहास मूल्याधिष्ठित परम्परा जिसमें साहित्य, कला, नीति के साथ साथ विज्ञान, तकनीक के भारतीय पर्याय सभी कुछ समाविष्ट हैं, का मूल्यांकन अत्यन्त अनादर और निराशा के साथ हुआ | वस्तुतः समस्त भारतीय ज्ञान विज्ञान यूरो केन्द्रितता में सांस्कृतिक पिछडेपन(Cultural lag) का  प्रदर्शन मात्र समझ लिया गया | वस्तुतः यूरो संकेन्द्रितता सामी विश्वदृष्टि  का  ही प्रतिफलन है| यह विश्व दृष्टि मिथ्या ही सही,  शताब्दियों तक विश्व सभ्यता के निर्माता के रूप में स्थापित रही है| किन्तु अपने आन्तरिक संघर्ष के कारण  इस सभ्यता को  सभ्यताओं के  संघर्ष की अपरिहार्यता का प्रतिपादन कराना पडा | ध्यान देने की बात यह है कि मूल ईसाई विचार करूणा प्रेम और सेवा का प्रतिपादक रहा है| बाद के दिनों में विकसित  स्वतन्त्रता समानता और बन्धुत्व का लोकतान्त्रिक आदर्श भी इसी ईसाई मूल का प्रतिफल था| 
बीसवीं शताब्दी  के अन्त में इस्लामी राष्ट्रो के आर्थिक अभ्युन्नति  तथा साम्यवाद के तिरोभाव के बाद इस यूरोपीय विचार को पहली बार  अपनी वैचारिकी को ऐसे सिद्धान्त का सामना करना पडा जो मूल में सामी होते हुये भी ईसाई सभ्यता के छद्म करूणामूलक सेवाधर्मी  रूप का प्रखर प्रतिरोधी और  ईसाई एकाधिकारिता  प्रबल विरोधी था | छद्म दया व करूणा के पारंपरिक हथियारों से उस पर विजय संभव न थी | आधुनिक शिक्षा के द्वारा संस्कार परिवर्तन को भी इसके मुकाबिल खडा नहीं किया जा सकता था| क्योंकि शिक्षा और उसके माध्यम से अभ्युन्नति  को इस जडवादी सभ्यता ने अपना जीवन लक्ष्य समझा ही नहीं था|  साथ सभ्यताओं के संघर्ष  का कथित  पश्चिमी नवाचार  इसके मूल में ही था | इसलिये सभ्यताओं यह संघर्ष मात्र वैचारिक अथवा आस्था संस्थान को तोडने वाला  ही न होकर इससे बडे और भंयकर लक्ष्य  वाला है | इसका  लक्ष्य है  वास्तविक युद्ध के द्वारा अपने विरोधी आस्था संस्थान और विचार का समूलोच्छेद| अतः इस के प्रतिकार के लिये व्यापक विमर्श की आवश्यकता है | च्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जो इस यूरो ईसाई सभ्यता से आक्रान्त न हो| भारत के चित्त मानस और काल पर इस विजातीय वैचारिकी का प्रभाव इतना तीक्ष्ण और सघन है कि इ किसी एक क्षेत्र विशेष में इसके प्रतिकार का प्रयास इस को निष्प्रभावी नहीं कर सकता है अपितु इस प्रकार के एकांगी और एकदेशीय प्रयास इस विषाणु को नया रूप लेकर अन्य क्षेत्र मे प्रसारित होने मे उपादेय हो सकते हैं| अभी तक के प्रयासो का परिणाम इतना ही है कि इसके विषाणु भारत की जीवन शक्ति को समाप्त नही कर सके है, भारत में प्रसरित यह यूरण्ड पन्थ अभी भी  भारत की भवितव्यता को नष्ट करने में सफल नही हो सका है शायद इसलिये कि भारत का मूल उस वैचारिकी मे है जिसमे जीवन के सभी वितानो को  उनकी पूर्णता में समझा गया है| 

गुरुवार, 26 जून 2014

शङ्कराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती जी के साई बाबा के हिन्दू देवता होने पर प्रश्न उठाने के बाद

शङ्कराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती जी के साई बाबा के हिन्दू देवता होने पर प्रश्न उठाने के बाद से नये सवाल खडे हुये हैं ----

१        १. क्या सनातन धर्म परिभाषित धर्म है ?
         २.क्या सनातन धर्म हिन्दु समाज में कोई  संप्रदाय है ?
         ३.क्या आर्य समाज सनातन धर्म से बाहर है ?
         ४.क्या सनातन धर्म में नवीन उपासना प्रणाली के लिये कोई स्थान नही है ?
         ५.क्या सनातन धर्म को संचालित करने वाली कोई चर्च जैसी संस्था है ?
         ६. क्या शंकराचार्य की भूमिका वैसी ही है जैसी कि इस्लाम मे खलीफा या ईसाइयत में पोप         की है?
          ७. क्या सनातन धर्म में फतव जारी करने का किसी को कोई अधिकार है?

दूसरी ओर साई भक्तो ने भी जिस तरह की प्रतिक्रिया दी है उससे नयी उपासना परंपराओं को ले कर भी कुछ सवाल  सामने आये हैं ----

१.      क्या हिन्दू धर्म संस्थान में किसी आलोचना का उत्तर मुकदमे से दिया जायेगा ?
२.      क्या प्रतिरोधी विचारो को बल और संख्या के आधार पर दबाना हिन्दू धर्म परम्परा का भाग है ?
३.      क्या किसी वैदिक मन्त्र मे हेर फेर करना हिन्दू परम्परा में स्वीकार्य है ?
४.      नयी उपासना पद्धति की स्थापना का अर्थ क्या पूर्व में मान्य देवताओं के विग्रह को अवमानना की स्थिति में रखना है ?
५.      क्या चर्च से समतुल्य संस्था निर्मित कर हिन्दू धर्म परम्परा का विरूपण  नहीं है ?
६.      क्या पूर्व से स्थापित मन्दिरों मे सांई की प्रतिमा की स्थापना धर्मशास्त्रीय दृष्टि से उचित है?

७.      क्या शंकराचार्य के पद पर अभिषिक्त व्यक्ति की अवमानना हिन्दू धर्म के अनुकूल है ?

रविवार, 13 अक्तूबर 2013

विजयादशमी पाथेय

विजयादशमी अर्थात् विजयपर्व, आसुरी शक्ति और सभ्यता पर दैवी संस्कृति के विजय का दिन | देवासुर संग्राम तो अनेकों है फिर राम की विजय ही भारत के जन जन के मन में विजयपर्व के रूप में क्यों मान्य है ? विष्णु की देवासुर संग्राम में विजय, शिव का त्रिपुर दहन, महाभारत की विजय आदि अनेक ऐसे महायुद्ध हैं जिनको विजयपर्व माना जा सकता है| पर भारत का जन जन आश्विन शुक्ल दशमी अर्थात रावण पर राम के विजय को ही विजयपर्व मानता है| वह शायद इसलिए कि, अन्य विजय सत्ता के युद्ध है | इन का लक्ष्य एक को हरा कर अन्य सत्ता को प्रतिस्थापित करना है | इन सब में प्रतिशोध का असात्विक भाव तो है ही, सत्ता का राजसिक अहंकार भी है | जबकि राम की विजय  वानर, ऋक्ष और पैदल चलने वाले मनुष्य की सत्य और नैतिकता के लिए कृत संघर्ष की विजय गाथा है |
पैदल राम, वनवासी राम, विरथ राम, त्रिलोक विजयी रावण की उन्मत्त, उद्दाम, अत्याचारी  और लोलुप राजसत्ता को अत्यंत साधारण जीवों के बल पर चुनौति  देते हैं | सादगी, शुचिता, मर्यादा और नैतिकता के बल पर  आसुरी यांत्रिक सभ्यता पर विजय अर्जित करते हैं | यह राजा की नहीं राम की विजय है, संस्कार की विजय है, इसलिए वास्तविक विजय है और यह पर्व सच्चे अर्थो में भारत के जन जन का विजयपर्व है|

यह अधिनायकवाद पर जनसत्ता के विजय का महान पर्व है  क्योंकि चक्रवर्ती राज्य को त्याग कर वल्कल वेश में भी प्रसन्नवदन रहने वाले राजपुत्र, किन्तु अयोध्या से लेकर रामेश्वरम् तक लोक जीवन के बीच सामान्य जन की भांति विचरण करने  वाले, शबरी के जुठे बेर खाने वाले और अहिल्या का उद्धार करणे वाले श्रीराम ने रावण की लंका जीती,  किन्तु पुष्प की भांति अर्पित कर दिया उस विभीषण को जिसने तानाशाह और धर्मद्रोही  भाई का विरोध कर धर्ममय जन सत्ता का ध्वज उठाया था |


विजय का हिन्दु अर्थ है स्वधर्म और स्वदेश की रक्षा  न कि युद्ध कर अन्यो की भूमि धन और स्वत्व का अपहरण  यही निहितार्थ है विजयपर्व विजयादशमी का | ऐसी विजय में किसी में पराभव नहीं होता, राक्षसों का पराभव नहीं हुआ, केवल रावण के अहंकार का संहार हुआ। राक्षसों की सभ्यता भी नष्ट नहीं हुई, अपितु उसको दैवी संस्कृति का सहकार मिला ।