सत्ता के क्रीत दास नहीं निर्भीक बनें शिक्षक |
||
समग्र शिक्षा मानव में अन्तर्निहित सद्गुणो की अभिव्यक्ति है, तो उच्च शिक्षा
मूल्य संरचना, सद्गुणों की पहचान तथा भावी पीढ़ि के लिए ज्ञान के नवनवो- मेष का साधन है।
पूरी में उच्च शिक्षा का सम्बन्ध उत्पादकता एवं प्रयोजन- परकता से न हो करके
ज्ञान के अवाप्ति एवं उपार्जन से प्राप्त मूल्य बोध एवं आनन्द से रहा है। यही
नवीन शोध एवं नयी संभावनाओं के दरवाजे खोलता है। भारत में इस दृष्टि से अविद्या
एवं विद्या, तकनीक-विज्ञान,
शिल्प तथा ज्ञान का भेद-अभेदपूर्वक स्वीकार
किया गया है। शुद्ध विज्ञान कला,
दर्शन,
इतिहास इत्यादि का विवेचन अध्ययन एवं अध्यापन
धर्म के रूप में प्रतिस्थापित करते हुए भारतीय परम्परा ने इस की अपरिहार्यता एवं
सापेक्षिक श्रेष्ठता का प्रतिवाद किया है। किन्तु यह 1835 से 1885 के मध्यम
पश्चिमी ढांचे में ढ़लने के बाद धीरे-धीरे लक्ष्य से भी भटकी हुई है। 1990 के बाद भारतीय
शिक्षा विशेषत: उच्च शिक्षा ने नयी करवट ली है। उसने सम्पूर्ण उच्च शिक्षा को
मानव संस्कृति के चैतसिक पक्ष से काट कर के नये कलेवर में खड़ा कर दिया है। आज
के समाज में शिक्षा का पूर्णतावादी निदर्श समाप्त हो गया है तथा प्रयोजनमूलक
अर्थ क्रियावाद ने शिक्षा को व्यक्ति निर्माण के स्थान पर श्रेष्ठतम मानव संसाधन
निर्माण को शिक्षा के आदर्श के रूप में प्रतिस्थापित कर दिया है। परिणाम हुआ कि
सांस्कृतिक विद्यायें,
कला इत्यादि हासियें पर आ गये हैं। तो शुद्ध
विज्ञान भी आज अध्ययन के चुनाव में द्वितीय, तृतीय क्रम पर आ
गया है। तकनीक तथा प्रबन्ध का विज्ञानों के साम्राज्य में उदय होने और शनै:-शनै:
सम्राट की भूमिका प्राप्त कर लेने के कारण शिक्षा व्यापार के रूप में उभर कर के
आयी है। शैक्षिक संस्थान सेवा प्रदाता हो गये है, तो शिक्षक मानव
संसाधन तथा छात्र उपभोक्ता की भूमिका में है। तकनीक जब शिक्षा का केन्द्रीय तत्व
हो गया है, तो ज्ञान की अपेक्षा कौशल एवं शिल्प का ग्रहण ही शिक्षा का लक्ष्य हो गया
है। इन परिस्थितियों के परिवर्तन के कारण शिक्षक की भूमिका समाज के निर्माता के
रुप में नहीं बन पा रही है। अपितु शिक्षक समाज के लिए सुखोत्पादक वस्तुओं के
प्रस्तुतकर्ता के प्रशिक्षक की स्थिति में आ गया है। यह नये प्रकार की शिक्षा
है। जिसमें उपभोक्ता या प्रशिक्षु केन्द्रित उत्पाद या माडय़ूल प्रस्तुत करना
शिक्षक दायित्व है। इसने शिक्षा को उद्योग बना दिया है। विश्व व्यापार संगठन ने
शिक्षा को सेवा क्षेत्र में शामिल कर इसके व्यापारिक विस्तार के नये आयाम भी
प्रस्तुत किये है। ज्ञान केन्द्रित समाज में ज्ञान का अर्थ सद्गुण नहीं है, अपितु सूचनाएं
हैं। परिणामत: शिक्षक सद्गुणों के विकास की अपनी केन्द्रीय भूमिका से दूर हटकर
के सूचनाओं के स्रोत एवं अन्तरक की भूमिका में आ गया है। इस नये अवतार में
शिक्षक न तो समाज में सर्वोच्च सम्मान का हकदार है, न तो भविष्य का
निर्माता अपितु यह उसकी भूमिका एक ऐसे प्रबंधक की है, जो युवाओं को
कौशल सम्पन्न बनाने के लिए जिम्मेदार है। इसका परिणाम है कि ज्ञान के नवनवोन्मेष
का केन्द्र आज विश्वविद्यालय व महाविद्यालय न हो करके कारपोरेट जगत हो गया है।
शिक्षण संस्थाएं भारत में कानूनन लाभ का व्यवसाय नहीं हैं। कोई व्यक्ति पूंजी
निवेश कर किसी शैक्षणिक संस्थान से लाभांश नहीं अर्जित कर सकता है। इसके होते
हुए भी निजीकरण,
उदारीकरण एवं वैश्वीकरण ने इसको लाभ का
व्यवसाय बना दिया है। ज्ञान जो आनन्द का, निरतिशय आनन्द के प्रयोजन हीन-सुख का
साधन माना जाता रहा है। उसमें नयी विश्व व्यवस्था के कारण भूचाल आ गया है।
शिक्षा एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें कभी भी संतृप्तता नहीं आ सकती है। यह नियमित
चलने वाली प्रक्रिया है। इस प्रकिया पर पूंजी के द्वारा पकड़ बनाकर लाभ अर्जित
किया जा सकता है। इस संभावना ने शिक्षा संस्थानों को व्यापारिक केन्द्र बना दिया
है। इस विकट स्थिति में शिक्षक के समक्ष दोहरी चुनौती है। ऐन्द्रिक संवेदन के
स्तर पर सुखोपार्जन के लिए युवा में कौशल उत्पन्न करते हुए उसे उच्चतम शुभ की
प्राप्ति के लिए दृष्टि प्रदान करना है। इस भूमिका का सार्थक निर्वहन तभी संभव
है। जब युवा को समग्रता में सामने रख करके नीति बनायी जाय। एलपीजी की आंधी में
समग्रता में सोचने का स्वभाव समाप्त हो गया है। राजकीय आश्रय में रहकर राजधर्म के
बाहर नहीं सोचा जा सकता है। शिक्षक भी राजसत्त्ता के क्रीतदास की स्थिति में आ गया
है। उसके स्वतंत्र एवं निर्भीक सोच तथा जड़ता विहीन कार्यपद्धति को सत्ता एवं
कारपोरेट जगत के प्रभाव ने कुंद कर दिया है। इसका परिणाम हुआ है, शिक्षक समूह में
सृजनात्मक कल्पना समाप्त हो गयी है। यह सृजनात्मक कल्पना देश एवं काल के साथ
शिक्षा को संमजित करते हुए अनागत काल के अनुरुप दृष्टि निर्माण करती है। इसके
लिए नयी विश्व व्यवस्था के अनुरुप शिक्षा की प्रतिरुप का विकास करना होगा। साथ
ही साथ शिक्षक समाज की जिम्मेदारी है कि इस अनुकूल परिस्थिति के निर्माण के लिए
नैतिक नेतृत्व करने के अपने इतिहाससिद्ध भूमिका को वह पुन: स्वीकार करे। नैतिकता
एवं जीवन मूल्यों के संरक्षण संवर्धन का कार्य शिक्षक का प्राथमिक दायित्व है।
इसे मीडिया और चैनलों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है। व्यक्ति से व्यक्ति का शिक्षण
ही आदर्श एवं व्यवहार के अन्तर को कम करता है। इस लिये समाज के श्रेष्ठतम आदर्श
को अपने जीवन में उतार कर युवा पीढ़ी को प्रेरणा देने वाले शिक्षक की भूमिका
कालजयी है। इस भूमिका से शिक्षक विचलित होता है। जो समाज पद दलित हो जाता है।
मानव जाति के निरन्तर विकास की प्राथमिक भूमिका शिक्षक की हे। इस भूमिका को उसे
सर्वदा बना करके रखना ही होगा।
|
शनिवार, 9 मार्च 2013
सत्ता के क्रीत दास नहीं निर्भीक बनें शिक्षक
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
2 टिप्पणियां:
रजनीश जी, आपकी बात पूर्णतः सत्य है... शिक्षक को चाकर नही बल्कि समाज-निर्माता की भूमिका मे रहना चाहिये...
वैज्ञानिकता के नाम पर बाजारु और बिकाऊ तकनीकी शिक्षा का बोलबाला है। अन्य शब्दों में कहें तो शिल्प जो वर्णव्यवस्था सम्मत काल में शूद्रों का अधिकार था आज वह सर्वजातियों का ध्येय बन गयी है। वस्तुतः ‘स विद्या व विमुक्तये’ का सूत्र और आदर्श विलुप्तप्रायः है।
एक टिप्पणी भेजें