छात्र आन्दोलन की प्रासंगिकता सार्वकालिक है।
तकनीक पर निर्भरता का का विस्तार मनुष्य के महत्त्व को कम करता है। तकनीक केन्द्रित जीवन की श्रेष्ठता का यशोगान करने वाले सर्वदा यह प्रयास करते हैं कि मानव मेधा की सभी सृजनात्मक गतिविधियों को मशीनी बना कर श्रम और समय को बचाया जाय। यह इसका स्वाभाविक उद्देश्य है। इसके साथ ही बचे हुये समय को ऐन्द्रिकोपभोग में लगाने के बहुविध उपक्रम खडा करके तकनीक जनित प्रयास उपभोक्ता संस्कृति का निर्माण करते है। इस अवस्था में सृजनात्मक कल्पना स्थगित हो जाती है उत्पादन और उपभोग ही मानवीय नियति बन जाती है।फल स्वरूप समाज ऎन्द्रिक स्तर पर जीवन जीने लगता है तथा परिवर्तन के प्रयास हिंसक मोड ले लेते हैं। भारतीय समाज जीवन में भी १९९० के बाद इस तरह की जीवन प्रणाली के प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगे हैं। इस प्रकार के जीवन का अभ्यास होने पर व्यक्ति नीजि सुख तथा तथा ऐन्द्रिक आस्वाद के लिये परिवर्तन के सजग, सकारात्मक एवं सगुण प्रयासों का बौद्धिक तर्को के आधार पर प्रतिरोध करता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पनपी यह प्रवृत्ति पूर्णतः यूरोपीय प्रत्यय है। भारत में इसने अपने पांव १९९० के बाद पसारे हैं । इस वृत्ति के समर्थक सामाजिक दण्डशक्ति के रूप में स्वतन्त्र छात्र आन्दोलन को अनावश्यक अप्रासंगिक तथा काल वाह्य मानते हैं। इस को स्थापित करने के लिये तर्क गढ़ा जाता है तथा गोयबेल्स के सिद्धान्त का अनुसरण करते हुये इन तर्कों को इतने जोर से प्रसारित किया जाता है कि कृत्रिम तर्क स्वाभाविक लगने लगता है। भारत में उपभोक्तावादी विखण्डित सामाजिक संरचना का प्रचार प्रसार करने वालों ने इसी पद्धति का अनुसरण किया है। इस दुष्प्रचार का शिकार देश की युवाशक्ति को होना पडा है। यह चर्चा दिग्भ्रमित युवा आन्दोलन जैसे विशेषणों से प्रारम्भ होता है तथा इसकी चरम निष्पत्ति छात्र युवा आन्दोलन को निरर्थक सिद्ध करने में होती है। यह विश्व व्यवस्था को संचालित करने के लिये विकसित उस नवप्रणाली का स्वाभाविक परिणाम है जो पश्चिम की वैचारिकी के उभय विध खांचे में फिट नही होती है क्योंकि यह न तो पूंजीवाद है न तो समाजवाद अपितु उपभोक्तावादी फलक्रियावाद से उपजी संकर प्रणाली है। जो समाज की संसक्तता को समाप्त करता है तथा वैयक्तिकता को पुष्ट करता है।
जो समाज यथास्थितिवादी नहीं है,सपने देखता है और सपनो को सच करने के लिये प्रयास करता है उस समाज में छात्र युवा आन्दोलन अपरिहार्य है। भारत का समाज स्वाभाविक रुप में ऐसा ही है। भारत की प्रगति समृद्धि तथा विश्वविजय की ओर बढ़ रही अप्रतिहत गति युवा गतिशीलता का ही परिणाम है। इस गतिशील विकास को समझने के लिये नब्बे के दशक के बाद की सामाजिक अभिवृत्ति को विश्लेषित करने एवं मूल्यांकित करने की आवश्यकता है। छात्र आन्दोलन को समाप्त करने तथा छात्र सक्रियता को स्तंभित करने के कारण भारत में किस प्रकार की समस्यायें आयी है इसका भी विवेचन आवश्यक है।
यदि भारतीय सन्दर्भों में छात्र सक्रियता का मूल्याकंन तथा उसकी प्रासंगिकता का विचार सही सन्दर्भों में करना है तो इसे मात्र सत्ता परिवर्तन के राजनीतिक साधन के रुप में देखने की सामान्य प्रवृत्ति से अलग सोचने की आवश्यकता भी है क्योंकि सत्ता परिवर्तन और राजसत्ता दखल के आन्दोलन वास्तविक छात्र युवा आन्दोलन नहीं हैं, अपितु यह राजनीतिज्ञों के द्वारा अपने दलीय हितो को लेकर किया जाने वाला उपक्रम मात्र है। अतः उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह द्वारा अथवा देश मॆ राहुल गांधी द्वारा चलाये जा रहे कार्यक्रमों को छात्र युवा आन्दोलन के पर्याय के रूप में देखना स्थिति का वास्तविक दर्शन नहीं है। इसका निहितार्थ तो छात्र युवा आन्दोलन को अप्रासंगिक सिद्ध करना ही है।
इसी प्रकार युवा आन्दोलन के दिन बीत गये इस प्रकार की भविष्यवाणी करने वाले लोग १९९० के बाद के उदारीकरण तथा तज्जन्य उपभोक्तावाद के अधिवक्ता एवं सृजनात्मक कल्पना से शून्य लोग हैं। उनके द्वारा परोसे जा रहे तथ्य इस देश के युवा मन का यथार्थ नहीं है। इसलिये यह आवश्यक है कि भारत के युवा का सच सामने आना चाहिये। उसे प्रचारित प्रसारित करने का बहुशः यत्न भी होना चाहिये। किन्तु भारतीय युवा का समकालीन रुप बाजार के विस्तार में सहायक नहीं है अतः इस को बाजार केन्द्रित विचार सरणि में स्थान नहीं प्राप्त हो सकता है। इन सब के होते हुये यह भी सच है कि समकालीन समाज का नियन्त्रण बाजार द्वारा हो रहा है न कि समाज में अनुकरण योग्य आदर्श प्रस्तुत कर सकने की क्षमता रखने वाले व्यक्तित्व वाले श्रेष्ठ जनों के द्वारा।
आज आवश्यक है कि स्वातन्त्र्योत्तर भारत में छात्र युवा आन्दोलन के महत्त्व तथा उसकी प्रभावकारी भूमिका का स्मरण किया जाय तथा १९९० के बाद की छात्र युवा गतिविधियों का समुचित मूल्यांकन हो। इसके बिना भारत में छात्र आन्दोलन की प्रासंगिकता का निषेध उचित नहीं है। सत्य तो यह है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति से अब तक का समकालीन इतिहास समर्थ, सशक्त और वैभवशाली भारत के निर्माण में अपना श्रेष्ठतम योगदान करने वाले छात्र आन्दोलन का ही इतिहास है। याद करें स्वतन्त्रता के बाद जब देश के संविधान निर्माण पर सामाजिक जीवन में चुप्पी थी, सन्नाटा पसरा हुआ था। संविधान सभा के बाहर देश की जनता को उसके स्वरुप तथा रचना के संबन्ध में बताने वाला कोई न था। तब इस देश के युवाओं ने रचनात्मक संघर्ष का व्रत लिया और भारतीयकरण उद्योग के नाम से एक छात्र आन्दोलन खडा हुआ। १९६२ मॆं चीन के आक्रमण के बाद पूर्वोत्तर की सीमा के मानवीय प्रश्न जिसे नक्शों और ग्रन्थों के आधार पर सुलझा या जाना संभव न था उसके लिये हृदय से संवाद करनॆ वाले मानवीय संवेदना से युक्त प्रयासो की आवश्यकता थी| यह स्थिति राष्ट्रीय परिदृष्य में चुप्पी की बन गयी थी। इस मौन को तोडने के लिये पूर्वोत्तर के लोगों से मिलकार हृदयपूर्वक संवाद स्थापित करने के लिये अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने जब अन्तर्राष्ट्रिय छात्र जीवन दर्शन नाम प्रकल्प की शुरुआत की तो यह भारत के इतिहास में अनूठी घटना थी। यह रचनात्मक छात्र आन्दोलन की अनोखी पहल थी, इसने देश के उपेक्षित भूभाग के लोगों से हृदय से संवाद तथा समस्त भारत के साथ पूर्वोत्तर के युवाओं के समरस संवाद का जो वितान प्रस्तुत किया है वह किसी भी शासकीय प्रयास से संभव न था। यह सब युवा रचनाधर्मिता से ही संभव था और उसने कर दिखाया। १९७४ का छात्र आन्दोलन किस प्रकार दूसरी आजादी का आन्दोलन बना और लोकतन्त्र की समाप्ति के षडयन्त्र को अपने अदम्य पराक्रम से नेस्तनाबूँद कर छात्र शक्ति ने सामजिक दण्ड शक्ति की अपनी भूमिका को जिस यशस्विता के साथ सिद्ध किया वह इतिहास का विषय है।उस पर इतना कुछ लिखा जा चुका है कि अब बहुत कुछ कहने की आवश्यकत नही है।
इस आलेख में मैं इस पर केन्द्रित हूँ कि वर्ष ७७ के बाद भी छात्र आन्दोलन मरा नहीं है अप्रासंगिक नही हुआ है। कश्मीर की समस्या आज पूरे देश मे अपने वास्तविक एवं यथार्थ रुप मे जानी जा रही है तो यह देश के युवाओं के द्वारा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के नेतृत्व में चलाये गये आन्दोलन का ही परिणाम है।असम सहित समूचे भारत में घुसपैठ यदि केन्द्रिय समस्या बना है,लोगों की चिन्ता इस बात को लेकर घनीभूत हुयी है तो इसका श्रेय परिषद के नेतॄत्व में पले छात्र आन्दोलन को ही है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध १९८६-९० का संघर्ष हो अथवा कश्मीर की समस्या छात्र सक्रियता का ही परिणाम था कि इस पर समस्त समाज गंभीर हुआ। नब्बे के बाद अर्थात् वैश्विकता की कथित आंधी और उदारीकरण के व्यापारिक उपक्रम के साथ ही यह बात जोर-शोर से कही जने लगी कि छात्र आन्दोलन के दिन लद गये ।शायद इस लिये कि छात्र आन्दोलन को परिभाषित करने वाले इसे सत्ता परिवर्तन का माध्यम मानते है। चूंकि व्यापारीकरण बाजारीकरण के वैश्विक प्रयास में सरकरों की प्रासंगिकता ही समाप्त हो गयी । इसलिए छात्र आन्दोलन की भी निरर्थकता सिद्ध हो गयी है।किन्तु यह योजनबद्ध विभ्रम का निर्माण मात्र था। समस्त विश्व विशेषत: भारत में छात्र आन्दोलन सत्ता परिवर्तन का साधन नही रहा है। सत्ता परिवर्तन आन्दोलन का साधन अवश्य रहा है।वस्तुत: आन्दोलन तो हमेशा राष्ट्रिय सन्दर्भों में ही खडे हुए किन्तु सत्ता परिवर्तन के पडाव पर आते-आते उन आन्दोलनों ने दम तोड दिया । इसलिए राजनीति द्वारा व्यर्थ एवं अप्रासंगिक कहे जाने लगे।
१९९० से २००० के बीच के दस वर्ष तो इस देश में छात्र आन्दोलन के लिए अत्यन्त खराब रहे है क्योंकि वैश्विक व्यापारवाद के समर्थकों ने छात्र सक्रियता के खिलाफ़ बौद्धिक मुहिम चलायी और उसे सर्वथा अप्रासंगिक सिद्ध कर दिया ।इस काल खण्ड में विखण्डनवाद ,व्यक्तिवाद ,वैयक्तिक नीजता आदि जाने कितने प्रकार के सिद्धान्त गढे गये और उन तर्कों के आधार पर सामूहिक सक्रियता कि निस्सारता सिद्ध की जाने लगी। जिसका परिणाम हुआ कि राज सत्ता ने छात्रों की सक्रियता के सभी मंचों को प्रतिबन्धित करना, उपेक्षित करना प्रारंभ कर दिया। इसका निशाना छात्र संघ बने।
इस प्रयास ने दोधारी तलवार का काम किया। एक तरफ़ तो यह सिद्ध किया कि छात्र आन्दोलन का अर्थ मात्र छात्र संघ एवं राजनीति है दूसरी ओर छात्रों को हिन्सावादी एवं अराजक सिद्ध करने में भी सफ़लता मिली। किन्तु यह भारतीय युवा का यथार्थ नही है मूलत: भारत का छात्र युवा न तो खाओ, पीओ, मौज उडाओ की अवधारणा वाला है न ही वह इसको अपने जीवन का यथार्थ मानता है । हाँ इन समस्त प्रयासों का परिणाम यह अवश्य रहा है कि भारतीय युवा में एक प्रकार का कैरियरिज्म प्रभावी हुआ है। किन्तु इस प्रभाव के कुछ सुपरिणाम भी आये। इन परिणामों ने छात्रान्दोलन की प्रासंगिकता को पुनर्सिद्ध किया है।
आज भारत विश्वविजेता बनने की भूमिका में है तो यह इसी युवा शक्ति की मेधा का प्रतिफ़ल है आज समस्त विश्व आशाभरी निगाहों से भारत की ओर देख रहा है तो युवा श्रम एवं कौशल के कारण से ही है। वस्तुत: छात्र आन्दोलन की प्रासंगिकता को समूचे राष्ट्रिय परिप्रेक्ष्य में न देख कर मात्र राजनीति के कोष्ठक में देखने वाले ही छात्र आन्दोलन को निष्प्रभावी एवं अप्रासंगिक कह सकते है। वस्तुत: सम्पूर्ण भारतीय परिदृश्य युवा शक्ति की गतिविधि से प्रभावित है। आन्दोलन का अर्थ ध्वंस नही अग्रगामी गति है। परिवर्तन की अग्रगामिता का निर्दश बना भारतीय युवा सभी मोर्चों पर भारत विजय का सपना साकार कर रहा है वह जीत रहा है और जीतेगा।
वास्तव में राष्ट्रीय विकास की गति के आलोक में युवा आन्दोलन को न देखने का कारण स्पष्ट है। इसे एक वर्ग शक्ति के रुप में स्थापित करना इस विधा में आसान है। इस पर एक ऐसा वर्ग जो कि अनुत्पादक है, एक ऐसा वर्ग जिस पर मात्र व्यय ही होने वाला है। कोढ में खाज मुहावरों को सटीक बैठाता उदारीकरण जनित व्यापारीकरण जिसमे उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन खपत की संतृप्तता के करण मन्दी ने घेर लिया था, को भी शिक्षा का बाजार प्राण वायु के रुप में दिखने लगा है। इन सब ने छात्र समुदाय को एक तरह से निराशा ही दी है।परिसर में आर्थिक शोषण और परिसर के बाहर भविष्य का अन्धेरा इन दोनों से संघर्ष करती छात्र शक्ति को अप्रासंगिक सिद्ध करना छात्र युवा के साथ अन्याय है।
आखिर किसी भी आपदा विभीषिका के समय प्रथम स्वयंसेवी के रुप में अपने को प्रस्तुत करने वाला युवा दिखता नही। भारत की रक्षा के लिए बलिवेदी पर चढने वाला युवा विभ्रम पैदा करने वलों को क्यों नहीं दिखता। भारत सहित समस्त विश्व में अपनी मेधा का लोहा मनवा रहा युवक क्यों नही सुर्खियां बनता है। आखिर युवा आन्दोलन को किस रुप में परिभाषित किया जायेगा। राष्ट्र के विकास में गतिशील योगदान कर रहा युवा, युवा आन्दोलन का ही प्रतिफ़ल है।घुसपैठ, आतंकवाद्, अशिक्षाके विरुद्ध लड रहा युवा छात्र युवा आन्दोलन ही है। मात्र सत्ता परिवर्तन का साधन बनाने की कोशिश और उसमे असफ़ल होने पर छात्र युवा आन्दोलन को निरर्थक तथा अप्रासंगिक सिद्ध करने वाले लोग युवा आन्दोलन के पर्याय से अपरिचित तथा विभ्रम के शिकार बुद्धिजीवी है। उनके लिए उनके शर्तों पर युवा आन्दोलन का न चलना ही श्रेयस्कर है।
तकनीक पर निर्भरता का का विस्तार मनुष्य के महत्त्व को कम करता है। तकनीक केन्द्रित जीवन की श्रेष्ठता का यशोगान करने वाले सर्वदा यह प्रयास करते हैं कि मानव मेधा की सभी सृजनात्मक गतिविधियों को मशीनी बना कर श्रम और समय को बचाया जाय। यह इसका स्वाभाविक उद्देश्य है। इसके साथ ही बचे हुये समय को ऐन्द्रिकोपभोग में लगाने के बहुविध उपक्रम खडा करके तकनीक जनित प्रयास उपभोक्ता संस्कृति का निर्माण करते है। इस अवस्था में सृजनात्मक कल्पना स्थगित हो जाती है उत्पादन और उपभोग ही मानवीय नियति बन जाती है।फल स्वरूप समाज ऎन्द्रिक स्तर पर जीवन जीने लगता है तथा परिवर्तन के प्रयास हिंसक मोड ले लेते हैं। भारतीय समाज जीवन में भी १९९० के बाद इस तरह की जीवन प्रणाली के प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगे हैं। इस प्रकार के जीवन का अभ्यास होने पर व्यक्ति नीजि सुख तथा तथा ऐन्द्रिक आस्वाद के लिये परिवर्तन के सजग, सकारात्मक एवं सगुण प्रयासों का बौद्धिक तर्को के आधार पर प्रतिरोध करता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पनपी यह प्रवृत्ति पूर्णतः यूरोपीय प्रत्यय है। भारत में इसने अपने पांव १९९० के बाद पसारे हैं । इस वृत्ति के समर्थक सामाजिक दण्डशक्ति के रूप में स्वतन्त्र छात्र आन्दोलन को अनावश्यक अप्रासंगिक तथा काल वाह्य मानते हैं। इस को स्थापित करने के लिये तर्क गढ़ा जाता है तथा गोयबेल्स के सिद्धान्त का अनुसरण करते हुये इन तर्कों को इतने जोर से प्रसारित किया जाता है कि कृत्रिम तर्क स्वाभाविक लगने लगता है। भारत में उपभोक्तावादी विखण्डित सामाजिक संरचना का प्रचार प्रसार करने वालों ने इसी पद्धति का अनुसरण किया है। इस दुष्प्रचार का शिकार देश की युवाशक्ति को होना पडा है। यह चर्चा दिग्भ्रमित युवा आन्दोलन जैसे विशेषणों से प्रारम्भ होता है तथा इसकी चरम निष्पत्ति छात्र युवा आन्दोलन को निरर्थक सिद्ध करने में होती है। यह विश्व व्यवस्था को संचालित करने के लिये विकसित उस नवप्रणाली का स्वाभाविक परिणाम है जो पश्चिम की वैचारिकी के उभय विध खांचे में फिट नही होती है क्योंकि यह न तो पूंजीवाद है न तो समाजवाद अपितु उपभोक्तावादी फलक्रियावाद से उपजी संकर प्रणाली है। जो समाज की संसक्तता को समाप्त करता है तथा वैयक्तिकता को पुष्ट करता है।
जो समाज यथास्थितिवादी नहीं है,सपने देखता है और सपनो को सच करने के लिये प्रयास करता है उस समाज में छात्र युवा आन्दोलन अपरिहार्य है। भारत का समाज स्वाभाविक रुप में ऐसा ही है। भारत की प्रगति समृद्धि तथा विश्वविजय की ओर बढ़ रही अप्रतिहत गति युवा गतिशीलता का ही परिणाम है। इस गतिशील विकास को समझने के लिये नब्बे के दशक के बाद की सामाजिक अभिवृत्ति को विश्लेषित करने एवं मूल्यांकित करने की आवश्यकता है। छात्र आन्दोलन को समाप्त करने तथा छात्र सक्रियता को स्तंभित करने के कारण भारत में किस प्रकार की समस्यायें आयी है इसका भी विवेचन आवश्यक है।
यदि भारतीय सन्दर्भों में छात्र सक्रियता का मूल्याकंन तथा उसकी प्रासंगिकता का विचार सही सन्दर्भों में करना है तो इसे मात्र सत्ता परिवर्तन के राजनीतिक साधन के रुप में देखने की सामान्य प्रवृत्ति से अलग सोचने की आवश्यकता भी है क्योंकि सत्ता परिवर्तन और राजसत्ता दखल के आन्दोलन वास्तविक छात्र युवा आन्दोलन नहीं हैं, अपितु यह राजनीतिज्ञों के द्वारा अपने दलीय हितो को लेकर किया जाने वाला उपक्रम मात्र है। अतः उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह द्वारा अथवा देश मॆ राहुल गांधी द्वारा चलाये जा रहे कार्यक्रमों को छात्र युवा आन्दोलन के पर्याय के रूप में देखना स्थिति का वास्तविक दर्शन नहीं है। इसका निहितार्थ तो छात्र युवा आन्दोलन को अप्रासंगिक सिद्ध करना ही है।
इसी प्रकार युवा आन्दोलन के दिन बीत गये इस प्रकार की भविष्यवाणी करने वाले लोग १९९० के बाद के उदारीकरण तथा तज्जन्य उपभोक्तावाद के अधिवक्ता एवं सृजनात्मक कल्पना से शून्य लोग हैं। उनके द्वारा परोसे जा रहे तथ्य इस देश के युवा मन का यथार्थ नहीं है। इसलिये यह आवश्यक है कि भारत के युवा का सच सामने आना चाहिये। उसे प्रचारित प्रसारित करने का बहुशः यत्न भी होना चाहिये। किन्तु भारतीय युवा का समकालीन रुप बाजार के विस्तार में सहायक नहीं है अतः इस को बाजार केन्द्रित विचार सरणि में स्थान नहीं प्राप्त हो सकता है। इन सब के होते हुये यह भी सच है कि समकालीन समाज का नियन्त्रण बाजार द्वारा हो रहा है न कि समाज में अनुकरण योग्य आदर्श प्रस्तुत कर सकने की क्षमता रखने वाले व्यक्तित्व वाले श्रेष्ठ जनों के द्वारा।
आज आवश्यक है कि स्वातन्त्र्योत्तर भारत में छात्र युवा आन्दोलन के महत्त्व तथा उसकी प्रभावकारी भूमिका का स्मरण किया जाय तथा १९९० के बाद की छात्र युवा गतिविधियों का समुचित मूल्यांकन हो। इसके बिना भारत में छात्र आन्दोलन की प्रासंगिकता का निषेध उचित नहीं है। सत्य तो यह है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति से अब तक का समकालीन इतिहास समर्थ, सशक्त और वैभवशाली भारत के निर्माण में अपना श्रेष्ठतम योगदान करने वाले छात्र आन्दोलन का ही इतिहास है। याद करें स्वतन्त्रता के बाद जब देश के संविधान निर्माण पर सामाजिक जीवन में चुप्पी थी, सन्नाटा पसरा हुआ था। संविधान सभा के बाहर देश की जनता को उसके स्वरुप तथा रचना के संबन्ध में बताने वाला कोई न था। तब इस देश के युवाओं ने रचनात्मक संघर्ष का व्रत लिया और भारतीयकरण उद्योग के नाम से एक छात्र आन्दोलन खडा हुआ। १९६२ मॆं चीन के आक्रमण के बाद पूर्वोत्तर की सीमा के मानवीय प्रश्न जिसे नक्शों और ग्रन्थों के आधार पर सुलझा या जाना संभव न था उसके लिये हृदय से संवाद करनॆ वाले मानवीय संवेदना से युक्त प्रयासो की आवश्यकता थी| यह स्थिति राष्ट्रीय परिदृष्य में चुप्पी की बन गयी थी। इस मौन को तोडने के लिये पूर्वोत्तर के लोगों से मिलकार हृदयपूर्वक संवाद स्थापित करने के लिये अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने जब अन्तर्राष्ट्रिय छात्र जीवन दर्शन नाम प्रकल्प की शुरुआत की तो यह भारत के इतिहास में अनूठी घटना थी। यह रचनात्मक छात्र आन्दोलन की अनोखी पहल थी, इसने देश के उपेक्षित भूभाग के लोगों से हृदय से संवाद तथा समस्त भारत के साथ पूर्वोत्तर के युवाओं के समरस संवाद का जो वितान प्रस्तुत किया है वह किसी भी शासकीय प्रयास से संभव न था। यह सब युवा रचनाधर्मिता से ही संभव था और उसने कर दिखाया। १९७४ का छात्र आन्दोलन किस प्रकार दूसरी आजादी का आन्दोलन बना और लोकतन्त्र की समाप्ति के षडयन्त्र को अपने अदम्य पराक्रम से नेस्तनाबूँद कर छात्र शक्ति ने सामजिक दण्ड शक्ति की अपनी भूमिका को जिस यशस्विता के साथ सिद्ध किया वह इतिहास का विषय है।उस पर इतना कुछ लिखा जा चुका है कि अब बहुत कुछ कहने की आवश्यकत नही है।
इस आलेख में मैं इस पर केन्द्रित हूँ कि वर्ष ७७ के बाद भी छात्र आन्दोलन मरा नहीं है अप्रासंगिक नही हुआ है। कश्मीर की समस्या आज पूरे देश मे अपने वास्तविक एवं यथार्थ रुप मे जानी जा रही है तो यह देश के युवाओं के द्वारा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के नेतृत्व में चलाये गये आन्दोलन का ही परिणाम है।असम सहित समूचे भारत में घुसपैठ यदि केन्द्रिय समस्या बना है,लोगों की चिन्ता इस बात को लेकर घनीभूत हुयी है तो इसका श्रेय परिषद के नेतॄत्व में पले छात्र आन्दोलन को ही है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध १९८६-९० का संघर्ष हो अथवा कश्मीर की समस्या छात्र सक्रियता का ही परिणाम था कि इस पर समस्त समाज गंभीर हुआ। नब्बे के बाद अर्थात् वैश्विकता की कथित आंधी और उदारीकरण के व्यापारिक उपक्रम के साथ ही यह बात जोर-शोर से कही जने लगी कि छात्र आन्दोलन के दिन लद गये ।शायद इस लिये कि छात्र आन्दोलन को परिभाषित करने वाले इसे सत्ता परिवर्तन का माध्यम मानते है। चूंकि व्यापारीकरण बाजारीकरण के वैश्विक प्रयास में सरकरों की प्रासंगिकता ही समाप्त हो गयी । इसलिए छात्र आन्दोलन की भी निरर्थकता सिद्ध हो गयी है।किन्तु यह योजनबद्ध विभ्रम का निर्माण मात्र था। समस्त विश्व विशेषत: भारत में छात्र आन्दोलन सत्ता परिवर्तन का साधन नही रहा है। सत्ता परिवर्तन आन्दोलन का साधन अवश्य रहा है।वस्तुत: आन्दोलन तो हमेशा राष्ट्रिय सन्दर्भों में ही खडे हुए किन्तु सत्ता परिवर्तन के पडाव पर आते-आते उन आन्दोलनों ने दम तोड दिया । इसलिए राजनीति द्वारा व्यर्थ एवं अप्रासंगिक कहे जाने लगे।
१९९० से २००० के बीच के दस वर्ष तो इस देश में छात्र आन्दोलन के लिए अत्यन्त खराब रहे है क्योंकि वैश्विक व्यापारवाद के समर्थकों ने छात्र सक्रियता के खिलाफ़ बौद्धिक मुहिम चलायी और उसे सर्वथा अप्रासंगिक सिद्ध कर दिया ।इस काल खण्ड में विखण्डनवाद ,व्यक्तिवाद ,वैयक्तिक नीजता आदि जाने कितने प्रकार के सिद्धान्त गढे गये और उन तर्कों के आधार पर सामूहिक सक्रियता कि निस्सारता सिद्ध की जाने लगी। जिसका परिणाम हुआ कि राज सत्ता ने छात्रों की सक्रियता के सभी मंचों को प्रतिबन्धित करना, उपेक्षित करना प्रारंभ कर दिया। इसका निशाना छात्र संघ बने।
इस प्रयास ने दोधारी तलवार का काम किया। एक तरफ़ तो यह सिद्ध किया कि छात्र आन्दोलन का अर्थ मात्र छात्र संघ एवं राजनीति है दूसरी ओर छात्रों को हिन्सावादी एवं अराजक सिद्ध करने में भी सफ़लता मिली। किन्तु यह भारतीय युवा का यथार्थ नही है मूलत: भारत का छात्र युवा न तो खाओ, पीओ, मौज उडाओ की अवधारणा वाला है न ही वह इसको अपने जीवन का यथार्थ मानता है । हाँ इन समस्त प्रयासों का परिणाम यह अवश्य रहा है कि भारतीय युवा में एक प्रकार का कैरियरिज्म प्रभावी हुआ है। किन्तु इस प्रभाव के कुछ सुपरिणाम भी आये। इन परिणामों ने छात्रान्दोलन की प्रासंगिकता को पुनर्सिद्ध किया है।
आज भारत विश्वविजेता बनने की भूमिका में है तो यह इसी युवा शक्ति की मेधा का प्रतिफ़ल है आज समस्त विश्व आशाभरी निगाहों से भारत की ओर देख रहा है तो युवा श्रम एवं कौशल के कारण से ही है। वस्तुत: छात्र आन्दोलन की प्रासंगिकता को समूचे राष्ट्रिय परिप्रेक्ष्य में न देख कर मात्र राजनीति के कोष्ठक में देखने वाले ही छात्र आन्दोलन को निष्प्रभावी एवं अप्रासंगिक कह सकते है। वस्तुत: सम्पूर्ण भारतीय परिदृश्य युवा शक्ति की गतिविधि से प्रभावित है। आन्दोलन का अर्थ ध्वंस नही अग्रगामी गति है। परिवर्तन की अग्रगामिता का निर्दश बना भारतीय युवा सभी मोर्चों पर भारत विजय का सपना साकार कर रहा है वह जीत रहा है और जीतेगा।
वास्तव में राष्ट्रीय विकास की गति के आलोक में युवा आन्दोलन को न देखने का कारण स्पष्ट है। इसे एक वर्ग शक्ति के रुप में स्थापित करना इस विधा में आसान है। इस पर एक ऐसा वर्ग जो कि अनुत्पादक है, एक ऐसा वर्ग जिस पर मात्र व्यय ही होने वाला है। कोढ में खाज मुहावरों को सटीक बैठाता उदारीकरण जनित व्यापारीकरण जिसमे उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन खपत की संतृप्तता के करण मन्दी ने घेर लिया था, को भी शिक्षा का बाजार प्राण वायु के रुप में दिखने लगा है। इन सब ने छात्र समुदाय को एक तरह से निराशा ही दी है।परिसर में आर्थिक शोषण और परिसर के बाहर भविष्य का अन्धेरा इन दोनों से संघर्ष करती छात्र शक्ति को अप्रासंगिक सिद्ध करना छात्र युवा के साथ अन्याय है।
आखिर किसी भी आपदा विभीषिका के समय प्रथम स्वयंसेवी के रुप में अपने को प्रस्तुत करने वाला युवा दिखता नही। भारत की रक्षा के लिए बलिवेदी पर चढने वाला युवा विभ्रम पैदा करने वलों को क्यों नहीं दिखता। भारत सहित समस्त विश्व में अपनी मेधा का लोहा मनवा रहा युवक क्यों नही सुर्खियां बनता है। आखिर युवा आन्दोलन को किस रुप में परिभाषित किया जायेगा। राष्ट्र के विकास में गतिशील योगदान कर रहा युवा, युवा आन्दोलन का ही प्रतिफ़ल है।घुसपैठ, आतंकवाद्, अशिक्षाके विरुद्ध लड रहा युवा छात्र युवा आन्दोलन ही है। मात्र सत्ता परिवर्तन का साधन बनाने की कोशिश और उसमे असफ़ल होने पर छात्र युवा आन्दोलन को निरर्थक तथा अप्रासंगिक सिद्ध करने वाले लोग युवा आन्दोलन के पर्याय से अपरिचित तथा विभ्रम के शिकार बुद्धिजीवी है। उनके लिए उनके शर्तों पर युवा आन्दोलन का न चलना ही श्रेयस्कर है।
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